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रसर
- का० ४७.६९०]
जैनमतम् । जीवाजीवौ तथा पुण्यं पापमास्रवसंवरौ ।
बन्धो विनिर्जरामोक्षौ 'नव तत्वानि तन्मते ॥४७॥ $८८. व्याख्या-चेतनालक्षणो जीवः १, तद्विपरीतलक्षणस्त्वजीवः २१धर्माधर्माकाशकालपुद्गलभेदेन स्वसौ पञ्चधा व्यवस्थितः। अनयोरेव द्वयोर्जगद्वर्तिनः सर्वेऽपि भावा अन्तर्भवन्ति । नहि ज्ञानादयो रूपरसादयश्च द्रव्यगुणा उत्क्षेपणादीनि च कर्माणि सामान्यविशेषसमवायाश्च जीवाजीवव्यतिरेकेणात्मस्थिति लभन्ते, तभेदेनैकान्ततस्तेषामनुपलम्भात्, तेषां तदात्मकत्वेन प्रतिपत्तेः, अन्यथा तदसत्त्वप्रसङ्गात् ।
६८९. बौद्धादिपरिकल्पितदुःखादितत्त्वानि जीवाजीवाभ्यां पृथग्जात्यन्तरतया न वक्तव्यानि, जीवाजीवराशिद्वयेन सर्वस्य जगतो व्याप्तत्वात्, तदव्याप्तस्य शशशृङ्गतुल्यत्वात् ।
६९०.हि पुण्यपापास्रवादीनामपि ततःपथगपादानं न यक्तिप्रधानं स्यात. राशियेन सर्वस्य व्याप्तत्वादिति चेत्, न; पुण्यादीनां विप्रतिपत्तिनिरासार्थत्वात्, आस्रवादीनां सकारणसंसारमुक्ति
जैन मतमें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य तथा पाप ये नव तत्त्वपसर्थ हैं ॥४७॥
८८. जिसमें चेतना-जानने-देखनेकी शक्ति पायी जाती है उसे जीव कहते हैं। जो चैतन्यसे रहित है वह अजीव है। अजीव पाँच प्रकारका है-१ धर्मद्रव्य,२ अधर्मद्रव्य, ३ आकाशद्रव्य. ४ कालद्रव्य तथा ५ पदगलद्रव्य । जीव और अजीव इन दो ही तत्त्वोंमें समस्त पदार्थों का अन्तर्भाव हो जाता है । वैशेषिकके द्वारा माने गये ज्ञान आदि तथा रूप, रस आदि गुणपदार्थ, उत्क्षेपण-ऊपर फेंकना आदि कर्मपदार्थ, तथा सामान्य, विशेष और समवाय पदार्थ इन जीव और अजीवसे भिन्न अपनी कोई हस्ती नहीं रखते। वे इन्हींके ही स्वभावरूप हैं अतः इनका इन्हीं जीव और अजीवमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। कोई भी प्रमाण गुण आदि पदार्थों को द्रव्यसे सर्वथा भिन्न रूपमें नहीं जान सकता। वे तो द्रव्यात्मक ही हैं । यदि गुण आदि पदार्थ द्रव्यसे भिन्न माने जावें; तो जैसे गुण रहित द्रव्यका अभाव हो जाता है उसी तरह द्रव्यरूप आश्रयके बिना गुणादि भी निराधार होकर असत् हो जायेंगे । अतः गुण आदिका द्रव्यसे तादात्म्य मानना ही उचित है।
८९. इसी प्रकार बौद्धोंके द्वारा माने गये दुःख, समुदय आदि चार आर्यसत्य भी जीव और अजीवसे भिन्न नहीं हैं उनका भी इन्हींमें अन्तर्भाव हो जाता है। तात्पर्य यह कि समस्त संसारके पदार्थ या तो जीवराशिमें अपनी गिनती करा सकते हैं या फिर अजीव राशिमें। इनसे भिन्न तीसरी कोई राशि नहीं है। जो इन दो राशियोंमें शामिल नहीं है समझ लो वह खरगोशके सोंग की तरह है ही नहीं, असत् है। बौद्धोंके दुःखतत्त्वका बन्धमें, समुदयका आस्रवमें, निरोधका मोक्षमें तथा मार्गका संवर और निर्जरामें अन्तर्भाव हो जाता है। ये आस्रव आदि जब आत्मपरिणाम रूपसे विवक्षित होते हैं तो भावास्रव आदि कहलाते हैं और जब पुद्गल पदार्थरूपसे विवक्षित होते हैं तब द्रव्यास्रव आदि कहे जाते हैं। तात्पर्य यह कि जीव और अजीव दो ही तत्त्वरूप समस्त संसार है।
९०. शंका-जब इन दो ही तत्त्वोंने सारे संसारके पदार्थोंको व्याप्त कर रखा है. इनसे भिन्न कोई भी अपनी सत्ता रख नहीं सकता, तब आपने इन दोके सिवाय पूण्य-पाप, आस्रव आदि अन्य सात तत्वोंका कथन क्यों किया? आपके हिसाबसे तो ये भी उन्हीं दोमें शामिल हो जायेंगे। . १. "नव सब्भावपयत्था पण्णत्ते । तं जहा-जीवा अजीवा पुण्णं पावो आसवो संवरो णिज्जरा बंधो
मोक्खो ॥" -स्थाना. ९।६६५ । २. -तस्त्वजीवः भ. २। ३. -दानं युक्तिप्रधान न स्यात् भ.३। ४. सर्वसंसार-भ. २।
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