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________________ २०८ ६ ८४. एतेन यदुच्यते षड्दर्शनसमुच्चये "अपवर्त्यते कृतार्थं नायुर्ज्ञानादयो न हीयन्ते । जगदुपकृतावनन्तं 'वीर्यं किं गततृषो भुक्तिः ||१||" [केवलिभुक्ति. इलो. १६] इत्यादि निरस्तम् । एवंविधौदारिकत्वादिसामग्रीसद्भावेन छद्यस्थावस्थायामपि केवलिनो - भुक्तिप्रसक्तेः । समस्तवोर्यान्तरायक्षयाभावाच्छास्थस्य भुक्तिरिति चेत् तदयुक्तम्; यतः किं तत्रायुष्कस्यापवर्तनं स्यात्कि वा चतुर्णां ज्ञानानां काचिद्धानिः स्यात्, येन भुक्तिः ? तेन यथा दीर्घकालस्थितेरायुष्कं कारणमेवमाहारोऽपि यथासिद्धिगतेर्व्युपरत क्रियाध्यानचरमक्षणः कारणम् एवं सम्यक्कादिकमपीति अनन्तवीर्यतापि तस्याहारग्रहणे न विरुध्यते । तथा तस्य देवच्छन्दादीनि [ का० ४६ ६ ८४ मोहका विकार नहीं है, वह इच्छा रूप नहीं है । वह तो वेदनीयके उदयसे होनेवाली एक बेचैनी है, जो पेटमें कुछ डाले बिना हरगिज नहीं मिट सकती । § ८४. अतः आपका यह कहना भी खण्डित हो जाता है कि - " कृतकृत्य केवलीकी आयु में न्यूनाधिकता होने का डर नहीं है जिससे उसकी अकाल मृत्यु हो, पूर्ण एवं निरावरण होनेसे उसके ज्ञानादिकी भी हानि नहीं हो सकती, संसारका उपकार करनेके लिए अनन्तवीर्य मौजूद है तब तृष्णारहित वीतरागी केवली के पीछे भोजन करनेकी बला क्यों लगायी जाये ?” जब केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भी वही ओदारिक-स्थूल शरीर रहता है उसमें केवलज्ञान होने के कारण कुछ भी हेर-फेर नहीं होता तब भोजन करनेमें क्या हानि है ? आपके द्वारा दिये गये तर्कोंसे तो फिर आपको ही केवली अल्पज्ञ अवस्थामें निराहारी मानना चाहिए। आप ही सोचिए कि छद्मस्थअल्पज्ञ अवस्थामें केवलीको अपनी आयुके ह्रास होने का डर है ही नहीं, क्योंकि चरमशरीरीकी— अर्थात् उसी शरीरसे मुक्त होनेवालेकी आयुका अकालमें उच्छेद नहीं होता, उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान भी क्षीण नहीं हो सकते, तब क्यों अल्पज्ञ अवस्था में उसे भोजन करनेवाला माना जाये । उस समय भी उसे निराहारी ही कहिए । 'वीर्यान्तराय अर्थात् शक्तिको रोकनेवाले कर्म —- का सम्पूर्ण रूपसे नाश नहीं हुआ अतः शक्तिकी स्थिरता के लिए अल्पज्ञअवस्था में भोजन करना चाहिए' यह तर्क भी उचित नहीं है; क्योंकि अल्पज्ञको शक्तिकी स्थिरताकी भी कोई आवश्यकता नहीं है । यदि उसे अकालमें मरनेका या अपने ज्ञानादिमें शिथिलता आनेका डर होता तो यह वाजिब है कि वह आहार करे । परन्तु उसे दोनों बातोंका डर नहीं है, वह इन दोनों बातों से निश्चिन्त है, अतः इस प्रकारके तर्कोंसे तो अल्पज्ञको भी आहारका निषेध किया जा सकता है । इसलिए यदि आयुकर्म केवलीकी लम्बी उमरका प्रधान कारण है तो उसी तरह आहार -पानी लेना भी उसके चिरकाल तक जीने में एक सहकारी कारण है । जिस तरह मुक्त होनेमें समस्त मन-वचन-कायके व्यापारोंका अत्यन्त विरोध करनेवाले व्युपरतक्रिया ध्यानकी पूर्णता साक्षात् कारण है उसी तरह उसमें सम्यग्दर्शन आदि भी परम्परासे कारण हैं ही। अतः जिस तरह अनन्तवीर्यवाले केवलीकी मुक्तिमें व्युपरतक्रिया ध्यान और सम्यग्दर्शन आदि सभीकी अपेक्षा होती है, उसी तरह केवलीके चिरकाल तक जीनेके लिए आयुकर्म के साथ ही साथ आहारat भी अपेक्षा होनी चाहिए; इससे उसके अनन्तवीर्यत्व में कोई बाधा नहीं आ सकती । जिस प्रकार Jain Education International १. वीर्यं वा यत्तृषों म. २ । २. किं तत्रोदारि-भ २ । ३. “आयुरिवाभ्यवहारो जीवनहेतुविनाभ्यवहृतेः । चेत् तिष्ठत्वनन्तवीर्ये विनायुषा कालमपि तिष्ठेत् ॥” – केवलिभुक्तिप्र. इको. २० । ४ -क्रियाध्यान - आ. क. । " ध्यानस्य समुच्छिन्न क्रियस्य चरमक्षणे गते सिद्धिः । सा नेदानीमस्ति स्वस्य परेषां च कर्तव्या ॥" केवलिभुक्तिप्र श्लो. १८ 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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