SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -का० ४६ ६ ८६] जैनमतम् । २०९ विश्रामकारणानि गमननिषोदनानि च भवन्ति एवमाहार क्रियापि विरोधाभावात् । न च बलवत्तरस्य वीर्यवतोऽल्पीयसी क्षतः व्यभिचारात। ८५. किं चागमोऽपि केवलिनो भुक्ति प्रतिपादयति।तथाहि-तत्त्वार्थसूत्रम्"एकादश जिने" [त. सू. ९।१८] इति । व्याख्या-एकादश परीषहाः क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशय्यावधरोगतणस्पर्शमलाख्या जिने केवलिनि भवन्ति, तत्कारणस्य वेदनीयस्याद्यापि विद्यमानत्वात् । न च कारणानुच्छेदे कार्यस्योच्छेवः संभाव्यते, अतिप्रसक्तेः। अत एव केवलिनि क्षुद्वेदनीयपीडा संभाव्यते, कि त्वसावनन्तवीर्यत्वान्न विह्वलोभवति, न चासौ निष्ठितार्थों निःप्रयोजनमेव पीडां सहते। ६८६. न च शक्यते वक्तुं 'एवंभूतमेवै भगवतः शरीरं; यदुत क्षुत्पीडया न बाध्यते' इति; अनुमानेन तस्यास्तत्र सिद्धत्वात् । तथाहि-केवलिशरीरं क्षुदादिना पीड्यते शरीरत्वात्, केवली विश्राम करनेके लिए देवच्छन्द अर्थात् देवोंके द्वारा रचे गये स्थानविशेष आदिकी अपेक्षा रखता है, तथा वह गमन करता है, बैठता है, उठता है उसी तरह वह आहार भी यदि करता है तो इसमें कोई बाधा नहीं है । यह भी कोई नियम नहीं है कि 'जो जितना बलशाली होगा उसको उतनी ही कम भूख लगेगी'; क्योंकि संसारमें इस नियमका उलटा भी रूप देखा जाता हैबल्कि यहाँ तो जो जितना अधिक बलवान होता है उसको उतने ही जोरसे कड़ाके को भूख लगती है। ८५. आगमसे भी केवलीके आहार करने की सिद्धि होती है। देखो, तत्त्वार्थ सूत्रमें ही कहा है कि-"केवली जिनके ग्यारह परीषह-बाधाएं होती हैं" जिन अर्थात् केवलीमें भूख, प्यास, ठण्ड, गरमी, डांस-मच्छरका काटना, चलने में काटे आदिका चुभना, भूमिपर सोनेसे कंकड़ आदि गड़ना, दूसरेके द्वारा पीटा जाना, रोग, तीखे डाभ आदि तिनकोंका चुभना, और शरीरपर मैल लग जाना ये ग्यारह परीषह अर्थात् अपने आप सही जानेवाली बाधाएं हैं। इन बाधाओंका कारण है वेदनीय कर्मका उदय । सो केवलीमें उसका सद्भाव तथा उदय है ही। जब वेदनीय कर्म रूपी कारण मौजूद ही है तब उसके द्वारा होनेवाले भूख आदि कार्योंका अभाव कैसे माना जा सकता है ? समर्थं कारणके रहनेपर भी यदि कार्यकी उत्पत्ति न हो; तो संसारसे कार्यकारण भाव ही बिदा हो जायेगा। यही कारण है कि केवलीके भी भूख-प्यास आदिकी पीड़ा माननी पड़ती है। हाँ, यह अवश्य है कि केवली अनन्त शक्तिशाली होने के कारण भूख लगनेसे तड़प नहीं जाता, वह हमलोगोंकी तरह विह्वल नहीं होता। वह तो कृतकृत्य है, अतः बिना मतलबके पीड़ा क्यों सहेगा ? भूखको पीडाको सहना भी एक तप है, परन्तु केवली तो कृतकृत्य है, उसे जो कुछ करना था उसको वह कर चुका है अतः उसे तप करने की अब कोई आवश्यकता नहीं रही है। ६८६. 'भगवान्का ऐसा ही विलक्षण शरीर है कि उसे कभी भी क्षुधाको पीड़ा नहीं होती' यह तर्क उपस्थित नहीं किया जा सकता; क्योंकि ऐसे अनुमान मौजूद हैं, जिनसे भगवान्के शरीरमें भी क्षुधाकी बाधाका सद्भाव साधा जा सकता है। जैसे, केवलीका शरीर भी भूख आदि १. "ज्ञानाद्यलयेऽपि जिने मोहेऽपि स्याद् क्षुद् उद्भवेद् भुक्तिः । वचनगमनादिवच्च प्रयोजनं स्वपरसिद्धिः स्यात् ॥" -केवलिभुक्तिम. श्लो. १७ । २. “रोगादिवत् क्षुधो न व्यभिचारो वेदनीयजन्मायाः। प्राणिनि 'एकादश जिन' इति जिनसामान्यविषयं च ॥ तद्हेतुकर्मभावात् परीषहोक्तिर्न जिन उपस्कार्यः। नश्चाभावासिद्धरित्यादेनं क्षुदादिगतिः ॥" -केवकिभुक्तिप्र. श्लो. २९-१०। ३. “कायस्तथाविषोऽसौ जिनस्य यदभोजनस्थितिरितीदम् । वाङमात्र नात्रार्थे प्रमाणमाप्तागमोऽन्यद वा॥"-केवकिभुक्तिप्र. इको. २६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy