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________________ - का० ४६. ६८३] जैनमतम् । २०७ ६८२. यदुच्यते-'वेदनीयस्योदोरणाभावात् प्रभूततरपुद्गलोदयाभावः, तदभावाच्चात्यन्तं पीडाभावः' इति; तदयुक्तम्; तुर्यादिगुणस्थानकेषु वेदनीयस्य गुणश्रेणीसद्भावात्, प्रचुरपुद्गलोदये सत्यपि तत्कृतपीडाल्पत्वस्यैव दर्शनात, जिने सातोदयवत् प्रचुरपुदगलोदयाभावेऽपि तीवत्वप्रदर्शनाच्चेति । ..६८३. यदप्युच्यते 'आहाराकाङ्क्षा क्षुत, सा च परिग्रहबुद्धिः, सा च मोहनीयविकारः, तस्य चापगतत्वात्केवलिनो न भुक्तिः' इति; तदसम्यक 'यतो मोहनीयविपाकात् क्षुन भवति, तद्विपाकस्य प्रतिपक्षभावनानिवय॑मानत्वात्, क्रोधादीनां तथोपरमोपलब्धः। यदुक्तम्- "उवसमेण हणे कोह" [ दशवै. भा. ८।३९ ] इत्यादि । न च क्षुदेवनीयं तद्वद्विपक्षभावनया निवय॑मानं दृष्टम्, अतो न मोहविपाकस्वभावा क्षुदिति। ६८२. दिगम्बर-जब वेदनीय कर्मोको असमयमें जबर्दस्ती उदयमें लाते हैं तब अनेक कर्मोंका एक साथ उदय होनेसे पीड़ा होती है। परन्तु केवलीको जब वेदनीय कर्मोंकी उदीरणा(असमयमें बलात् उदयमें लाना ) नहीं होती तब बहुत-से कर्मोका एक ही बार उदयमें आनेके कारण होनेवालो पीड़ा भी उन्हें नहीं हो सकती। इस तरह जब भूखकी पीड़ा ही नहीं है तब आहारकी चर्चा ही निरर्थक है। श्वेताम्बर-बहुत कर्मोके उदयसे बहुत पीड़ा होती हो' ऐसा कोई नियम नहीं है। सम्यग्दष्टि आदि चौथे आदि गणस्थानोंमें सम्यग्दर्शन आदिके कारण गणश्रेणि निर्जरा अर्थात क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। उस समय उनके बहुत कर्मोंका एक साथ उदय होनेपर भी थोड़ी ही पीड़ा होती है। केवलीमें साता वेदनीय जातिके थोड़े ही कर्मोंका उदय पाया जाता है पर उन्हें साता तो अधिकसे अधिक होती है। अतः अधिक कर्मों के उदयमें आनेसे अधिक पीड़ा तथा थोड़े कर्मोंका उदय होनेसे थोड़े फल मिलनेका कोई नियम नहीं है। इसलिए वेदनीय कर्मोंकी उदीरणासे ही भूखका सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता। असाताका उदय ही भूख लगनेके लिए पर्याप्त प्रबल कारण है। ६८३. दिगम्बर-भूखका सीधा अर्थ है आहारकी इच्छा । और इच्छा तो मोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाला एक विकार है। इच्छा अभ्यन्तर परिग्रह रूप है। क्योंकि परिग्रहका मूल कारण इच्छा ही है । अतः निर्मोही केवलोके मोहके विकार रूप आहारकी इच्छा कैसे हो सकती है। जब इच्छा ही नहीं तब भोजन करनेकी बात कहना तो सरासर जबरदस्तीकी बात है। श्वेताम्बर-भूख मोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाला विकार नहीं है वह तो असातावेदनीयके उदयसे लगती है। मोहनीय कर्मसे होनेवाले कामादि विकार तो प्रतिपक्षी ब्रह्मचर्य आदिकी भावनाओंसे शान्त हो जाते हैं। क्रोध आ रहा हो तो क्षमाका विचार कीजिए, अपने-आप उसका वेग कम हो जायेगा और वह धीरे-धीरे बिलकुल शान्त हो जायेगा। कहा भी है-"उपशमशान्त विचारोंसे क्रोधको मारना चाहिए" परन्तु आप कितनी ही प्रतिपक्षी-अर्थात् आहार न करनेकी-भावना भाइए, पर जबतक पेटमें कुछ पहुँच न जायेगा तबतक सूखी भावनाओंसे क्षुधा शान्त होनेवाली नहीं है। पेटके लिए सद्विचार नहीं चाहिए उसे तो चाहिए है रूखा-सूखा भोजन । इसलिए जब प्रतिपक्षी भावनाओंसे भूख नहीं मिटती तो यह मानना ही होगा कि भूख १. “अनुदोर्णवेद्य इति चेद् न क्षुदवीयं किमत्र नहि वीर्यम् । क्षुदभावे क्षुदभावेन स्थित्यै क्षुधि तनोविलयः ॥" -केवलिभक्तिप्र.श्लो. १५। २. नक्षद विमोहपाको यत् प्रतिसंस्थानभावन निवां । न भवति विमोहपाकः सर्वोऽपि हि तेन विनिवर्त्यः ॥"-केवलिभुक्तिम. इको.७ । स्या. रत्ना. पू. ४७।। ३. "उपसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायमज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥' ( उपशमेन हन्यात् क्रोध, मानं मार्दवेन जयेत् । मायामार्जवभावेन, लोभं संतोषतो जयेत् ॥)-दशवै. ८१३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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