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________________ २०६ षड्दर्शनसमुच्चये [ का. ४६. ६७९ - सामनी चेयं पर्याप्नत्वं वेदनीयोदय आहारपक्तिनिमित्तं तैजसशरीरं दीर्घायुष्टवं चेति । साच समग्रापि केवलिनि समस्ति । ८० यदपि बग्घरज्जुस्थानिकत्वं वेदनीयस्योच्यते; तदप्यनागमिकमयुक्तियुक्तं च, आगमेऽत्यन्त-सातोदयस्य केवलिनि प्रतिपादनात् । युक्तिरपि, यदि घातिकर्मक्षयाज्ज्ञाना'दयस्तस्य भवेयुः, वेदनीयोद्भवायाः क्षुधः किमायातं येनासौ न भवति । ६८१. न तयोश्छायातपयोरिव सहानवस्थानलक्षणो भावाभावयोरिव परस्परपरिहारलक्षणो वा कश्चिद्विरोधोऽस्ति सातासातयोरन्तमुहर्तपरिवर्तमानतया सातोदयवदसातोदयोऽप्यस्तीत्यनन्तवीर्यत्वे सत्यपि शरीरबलापचयः क्षुदुद्भवपीडा च भवत्येव । न चाहारग्रहणे तस्य किचित्तूयते केवलमाहोपुरुषिकामात्रमेवेति । सब मौजूद हैं । भोजन करनेका सबसे बड़ा और समथं कारण है वेदनीय कर्मका उदय । इसके साथ ही साथ शरीरकी पूर्णता, आहारके पचानेके लिए कारणभूत तैजस शरीर-जठरका दीप्त रहना, तथा लम्बी आयु आदि भी भोजन करने की कारण सामग्रीमें शामिल हैं। ये सब कारण-कलाप केवली में पूरी तरह डटकर मौजूद हैं । अतः उन्हें भोजन करनेमें प्रवृत्ति करना सकारण उचित ही है। ६८०. आपने जो यह कहा था कि-'वेदतीयकर्म जली हुई रस्सीके समान निःशक्तिक है' वह आगमविरुद्ध तो है ही, युक्तिसे भी उसका समर्थन नहीं हो सकता। आगममें तो केवलीके अत्यन्त साताका उदय बताया है। यदि घातिया कर्मोंका क्षय केवलीने किया है तो उसके फलस्वरूप उसमें केवलज्ञान आदि उत्पन्न हों, यह तो उचित ही है; पर इससे वेदनीयके उदयसे होनेवाली बेचारी भूखने क्या बिगाड़ा, जिससे उसका निषेध किया जा रहा है। जब भूखका कारण वेदनीयका उदय अभी है ही तो भूख लगनी ही चाहिए तथा उसको शान्तिके लिए भोजन करना भी उचित ही है। ८१. जिस प्रकार धूप और छाया एक दूसरेके विरोधी होनेके कारण एक साथ नहीं रह सकते उस प्रकार केवलज्ञान आदि तथा भूख में सहानवस्थान ( एक साथ नहीं रह सकना) रूप विरोध तो है ही नहीं। ज्ञानी भी रहे तथा उसे भूख भी लगे इसमें क्या विरोध है । तथा जिस तरह भाव अभावका परिहार-निषेध करके अपनी हस्ती कायम करता है और अभाव भावको नेस्तनाबूद कर अपनी सत्ता जमाता है उस प्रकार कुछ केवलज्ञान आदि और भूखमें परस्परपरिहारस्थिति ( एकका निषेध कर दूसरेकी सत्ता होना ) रूप विरोध भी नहीं है । भूखके सद्भाव का ज्ञानके अभावसे कोई गठबन्धन नहीं है । साता और असाता रूप वेदनीयका उदय अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिटसे कुछ कम समय ) में बदलता रहता है। कभी साताका उदय होता है तो कभी असाताका । अतः भले ही केवलीमें अनन्तवीर्य अर्थात् अपरिमितशक्ति हो, पर जब असाताका उदय आयेगा तब शारीरिक बलको कमी तथा भूखकी पीड़ा होगी ही। केवलोका आहार कर लेनेसे कुछ बिगड़ता तो है ही नहीं जिससे उसको निराहारी माननेका आग्रह किया जाये। यह तो केवल नक्कूपन ही मालूम होता है। १.नि सम-भ. २। २. "न च दग्धरज्जुसंस्थानीयत्वात् तस्य स्वकार्याजनकत्वम् तत एव सातवेदनीयस्यापि स्वकार्याजनकत्वप्रसक्तेः सुखानुभवस्यापि भगवत्यभावप्रसङ्गात्। यथा च दग्घरज्जुसंस्थानीयायुष्कर्मोदयकार्य प्राणादिषारणं भगवति तथा प्रकृतमप्यभ्युपगम्यता विशेषाभावात् ।"-सन्मति. टी. प्र. ६१५। स्या. रत्ना. प. १६" । ३. नोदयस्तस्य भवेत्तहि वेद -म.२ ४. "तम इव भासो वृद्धो ज्ञानादीनां च तारतम्येन । क्षुध हीयतेऽत्र न च तद् ज्ञानादीनां विरोधगतिः ॥" -केवलिभुक्तिप्र. इको. ३। स्या, रस्ना. पृ. ४४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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