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________________ - का. ४६. ६ ७९ ] जनमतम् । २०५ वरणक्षयात् सम्यगवलोकयत्यसौ । संयमस्तु तस्य यथाख्यातचारित्रिणो निष्ठितार्थत्वादनन्तवीर्यं - त्वाच्च नाहारकारणीभवति । प्राणवृत्तिरपि तस्यानपवर्त्यायुष्ट्वादनन्तवीर्यत्वाच्चान्यथासिद्धैव । धर्मचिन्ताव सरस्त्वपगतः, निष्ठितार्थत्वात् । तदेवं केवलिनः कावलिकाहारो बहुदोष दुष्टत्वान्न घटत इति । $ ७९. अत्रोच्यते - तत्र यत्तावदूचानम् — 'तत्कारणाभावात्' इति साधनम्; तदसिद्धम्; आहारकारणस्य वेदनीयस्य केवलिनि तथैव सद्भावात् । तथा च किमिति सा शारीरी स्थितिः प्राक्तनी न स्यात् । प्रयोगोऽत्र स्यात्केवलिनो भुक्तिः समग्र सामग्रीकत्वात् पूर्वभुक्तिवत् । आदिका उद्देश्य तो केवलज्ञानसे बखूबी सिद्ध हो सकता है । केवलज्ञानावरणी कर्म क्षय होने से वे जगत्को हस्तामलकवत् देखते - जानते हैं ही । केवलीके यथाख्यात ( जैसा आत्माका शुद्ध रूप है उसकी प्राप्ति होना) संयम पूर्ण रूपमें विकसित हो ही चुका है, वे कृतकृत्य हैं तथा अनन्तशक्तिशाली हैं अतः संयमके उद्देशसे आहार करना भी नहीं जंचता । केवलीकी आयु - उमर अनपवर्त्य ( न घटनेवाली और न बढ़नेवाली ) है, अतः अकाल मौतका तो उन्हें डर ही नहीं है और अनन्तशक्ति के भण्डार होनेसे कमजोरी आदिको भी सम्भावना नहीं है, इसलिए उनकी जीवन-यात्रा बखूबी चल सकती है । वे तो सर्वज्ञ तथा धर्म तीर्थंके नेता हैं, कृतकृत्य हैं अतः धर्मचिन्ताकी फिक्रसे भी उन्हें भोजन करनेकी आवश्यकता नहीं है । उनकी धर्मचिन्ताका समय तो गया, अब तो वे धर्म प्रवर्तक हैं । इस तरह केवलीको कवलाहार माननेमें उनके अनन्तवीर्यकी कमी, तथा आहारकी इच्छा एवं प्रवृत्ति होनेसे रागी होने का प्रसंग आदि अनेकों दूषण आते हैं । अतः केवलीको कवलाहारी - एक- एक कौर खाकर भोजन करनेवाला मानना किसी भी तरह उचित नहीं है । ७९. श्वेताम्बर ( उत्तरपक्ष ) - आपने सबसे बड़ा हेतु यह दिया है कि - 'केवलीको भोजन करनेका कारण ही नहीं है' सो आपका यह हेतु असिद्ध है; क्योंकि भोजन करनेका सबसे प्रधान कारण है वेदनीयकर्मका उदय । सो जब वह केवलीमें उसी तरह मौजूद है जैसे कि हम लोगों में या केवलको केवलज्ञान होनेसे पहले था तब क्या कारण है कि जो केवली केवलज्ञान होने के पहले तो अच्छी तरह भोजन करता था वही केवलज्ञान होनेसे ही भोजनसे हाथ सिकोड़ लेता है ? शरीर तो आखिर शरीर ही है, उसे तो दानापानी चाहिए हो, नहीं तो यह मशीन रुक जायगी । इसलिए हम कह सकते हैं - 'केवली भोजन करता है, क्योंकि भोजन करनेके सभी कारण उसमें मौजूद हैं, जैसे कि वह अपनी अल्पज्ञ अवस्था में वेदनीय कर्मके उदयके कारण भोजन करने के लिए प्रवृत्ति करता था उसी तरह आज भी उसे भोजन करना चाहिए, क्योंकि पहले और आज के शरीरकी स्थिति में कोई भी फर्क नहीं हुआ है। पहले जितने कारण थे आज भी वे १. " नापि ज्ञानादिसिद्ध्यर्थम्, यतो ज्ञानं तस्याखिलार्थ विषयमक्षयस्वरूपम्, संयमश्च यथाख्यातः सर्वदा विद्यते ।” — प्रमेयक. पू. ३०६ । २. "नापि आयुषोऽपाधितमुक्तिकस्य अपवर्त्तननिवृत्त्यर्थम्, चरमोत्तम देहानामनपवत्त्र्यायुष्कत्वादेव तथाविषस्यास्य अपवर्त्तनानुपपत्तेः ।" न्यायकुमु. पु. ८६३ । प्रमेयक, पृ. ३०६ । ३. द्रष्टव्यम् - प्रमेयक, पृ. २९० - ३०६ । न्यायकु. पृ. ८५४-६५ । रत्नक. टी. पू. ६ । प्रव. टी. २६ । ४. " अस्ति च केवलिभुक्तिः समग्रहेतुर्यथा पुरा भुक्तेः । पर्याप्तिवेद्यतैजसदीर्घायुष्कोदयो हेतुः ॥ नष्टानि न कर्माणि क्षुषो निमित्तं विरोधिनो न गुणाः । ज्ञानादयो जिने कि सा संसारस्थितिर्नास्ति ।" - केवलिभु. इको. १-२ । सन्मति. टी. पू. ६१२ । स्था. र. पू. ४७४ । आध्यात्मिक. पू. ६३ B " अस्ति केवलिनो भुक्तिः समग्रसामग्रीकत्वात् पूर्वमुक्तिवत् । सामग्री चेयं प्रक्षेपाहारस्य तद्यथा पर्याप्तत्वं वेदनीयोदयः आहारपक्तिनिमित्तं तैजसशरीरं दीर्घायुष्कत्वं चेति । " - सूत्रकु. शी. पृ. ३४५ । युक्तिप्र. पू. १५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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