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२०४ - षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ४६.६७८रणाभावात्, न च कारणाभावे कार्यस्योत्पत्तिः अतिप्रसक्तेः। न च तत्कारणाभावोऽसिद्धः, आहारादाननिदानभूते वेदनादिषट्के एकस्यापि तस्य केवलिन्यभावात् । तथाहि-न तावत्तस्य वेदनोत्पद्यते, तवेदनीयस्य दग्धरज्जुस्थानिकत्वात् । सत्यामपि वेदनायां न तस्य तत्कृता पीडा, अनन्तवीर्यत्वात् । वैयावृत्त्यकरणं तु भगवति त्रैलोक्यपूज्ये न संभवत्येवेति । ईपिथं पुनः केवलज्ञानाजाता है तथा जिन प्रयोजनोंसे वह भोजन करता है वे सब कारण तथा प्रयोजन केवलीमें नहीं पाये जाते। बिना कारणके कार्यको उत्पत्ति मानना तो एक अलौकिक बात होगी, और इससे बड़ी अव्यवस्था हो जायगी। देखो, आहार ग्रहण करनेके लिए मनुष्य वेदना आदि छह कारणोंसे प्रवृत्त होता है। शास्त्रमें कवलाहारके ये छह कारण बतलाये हैं-१. वेदना-भूखकी पीड़ा होनेसे जब पेट और पीठ एक हो जाते हैं, भूखकी ज्वाला असह्य हो जाती है तब जिस किसी भी तरह भोजन पा लेनेकी
ओर प्रयत्न होता है । २. यह सोचकर कि-'मैं भोजन करता रहूँगा तो शरीर स्वस्थ रहेगा और मैं दूसरोंकी वैयावृत्त्य-सेवाटहल कर सकूँगा।' ३. यह विचारकर कि-'यह भोजन करता रहूँगा तो आंखोंको जोत ठीक रहेगी और इससे में अच्छी तरह देखभाल करके जाऊंगा-आऊंगा, यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करके ईर्यापथ (सावधानीसे गमन) को साध सकूँगा।' '४. यह समझकर कि 'यदि भोजन करके शरीरको स्वस्थ-कामचलाऊ हालतमें रखेंगे तो संयम तथा चारित्र आदि अच्छी तरह पाले जा सकेंगे।' ५. यह मानकर कि-यदि आहार लेते रहेंगे तो शेष जीवनका निर्वाह सुखशान्तिसे हो जायेगा, नहीं तो बेमोत असमयमें ही मरने की बारी आ जायेगी।' ६. यह समझकर कि-'यदि थोड़ा-बहुत भोजन लेते रहेंगे तो दिमाग ठीक रहेगा और उससे धर्मतत्त्वका अच्छी तरह विचार कर सकेंगे। परन्तु केवलीके इन छह कारणोंमें से एक भी कारण नहीं है, तब बताओ केवली अकारण ही भोजन क्यों करेंगे? आप स्वयं विचार कीजिए-केवलोके वेदना-पीड़ा तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि पीड़ामें कारण है असातावेदनीय कर्मका उदय । सो मोहनीय कमके नष्ट हो जानेसे बेचारा जली हुई रस्सीके समान नाचीज होकर पड़ा है। अतः जली हुई रस्सीके समान कहनेको तो वेदनीयका सद्भाव केवलीमें है, परन्तु वह असीम बलशाली केवलीमें पीड़ा उत्पन्न नहीं कर सकता। पीड़ा तो कमजोरोंको हो सकती है केवली तो अनन्तशक्तिके धनी हैं। 'दूसरोंके वैयावृत्त्य-सेवाटहलकी तो त्रिलोक्य पूज्य केवलीमें सम्भावना ही नहीं है। कोन ऐसा है जो जगत्पूज्य भगवानसे अपनी सेवा-चाकरी करायेगा ? अच्छी तरह सावधानीसे देखभालकर चलना
१. "ण बलाउसाउअटुंण सरीरस्सुवचय? तेजटुं । णाणट्ठ संजमटुंशाणटुं चेव भंजेज्जो ॥६२॥"-मूलाचा. ६।६२ । २. “एदेण कारणेण दुसादस्सेव दुणिरंतरो उदओ । तेणासादणिमित्ता परीसहा जिणवरे णत्सि ॥"
-गो. कर्म. गा. २७५ । "घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात् । यथा विषद्रव्यं मन्त्रौषधिबलादुपक्षीणमारणशक्तिकमुपयुज्यमानं न मरणाय कल्प्यते तथा ध्यानानलनिर्दग्धघातिकर्मेन्धनस्यानन्ताप्रतिहतज्ञानादिचतुष्टयस्यान्तरायाभावाग्निरन्तरमुपचीयमानशुभपुद्गलसन्ततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षोणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति क्षुधाद्य भावः, तत्सद्भावोपचारात् ध्यानकल्पनवत् ।"-त. वा. ९।११। "अविकलसामथ्र्य सातादिवेदनीयं स्वकार्यकारि, सामर्थ्यवैकल्यं च मोहनीयकर्मणो विनाशात्सुप्रसिद्धम् । यथैव हि पतिते सैन्यनायकेऽसामथ्र्य सैन्यस्य तथा मोहनीयकर्मणि नष्टे भगवत्यसामर्थ्यमघातिकर्मणाम्। यथा च मन्त्रेण निर्विषीकरणे कृते मन्त्रिणोपभुज्यमानमपि विषं न दाहमूर्छादिकं कत्तु समर्थम, तथा असातादिवेदनीयं विद्यमानोदयमप्यसति मोहनीये निःसामर्थ्यत्वान्न-क्षुददुःखकरणे प्रभुसामग्रीतः कार्योत्पत्तिप्रसिद्धः।" -प्रमेयक पु. ३०३। न्यायकुमु. पृ. ८५९ । रत्नक. टी. पृ. ६ । प्रव. टी. पृ. २८। ३. पीडा स्यादनन्त- भ. २। ४.-पथः पुनः भ. १, २, प.., २। ५. 'नापि क्षुद्वेदना प्रतीकारार्थ; अनन्तसुखवीर्ये भगवत्यस्याः सम्भवाभावस्योक्तत्वात् ।" -प्रमेयक. पृ. ३०६ । न्यायकुमु.पृ. ८६०। “यदि क्षुधाबाधास्ति तहि क्षधाक्षोणशक्तरनन्तवोयं नास्ति, तथैव क्षुधा दुःखितस्य अनन्तसुखमपि नास्ति ।"-प्रव. टी. प्र.२८।
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