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________________ -का० ४६ ६ ७८] जैनमतम् । २०३ एवमशेषविशेषकलितोऽपि । तथा चोक्तम् "यथा सकलशास्त्रार्थः स्वभ्यस्तः प्रतिभासते । __ मनस्येकक्षणेनैव तथानन्तादिवेदनम् ॥१॥" [प्र. वार्तिकाल. २।२२७ ] इति ७७. यच्चोक्तं 'अतीतानागत' इत्यादिः तदपि स्वप्रणेतरज्ञानित्वमेव ज्ञापयति. 'यतो यद्यपीदानींतनकालापेक्षया तेऽतीतानागतवस्तनी असती तथापि यथातीतमतीतकालेऽवतिष्ट 'यथा च भावि वतिष्यते तथैव तयोः साक्षात्कारित्वेन न कश्चनापि दोष इति सिद्धः सुखादिवत्सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वात सर्वज्ञ इति । ७८. अथ दिक्पटाः प्रकटयन्ति-ननु भवतु सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वात्सर्वज्ञसिद्धिः। किं त्वस्य कवलाहार इति न मृष्यामहे । तथाहि केवलिनः कवलाहारो न भवति तत्कापरिज्ञान होनेमें क्या बाधा है ? कहा भी है-"जैसे जिन शास्त्रोंका अच्छी तरह तलस्पर्शी अभ्यास किया है उन शास्त्रोंके सभी पदार्थ उपयोग लगानेपर एक ही साथ मनमें प्रतिभासित होते हैं उसी तरह अनन्तशक्तिशाली केवलज्ञानमें अनन्तपदार्थ युगपत् झलकते हैं ।।१।।" ७७. जो आपने 'अतीत अनागत पदार्थोंको वर्तमान रूपसे जानता है या अतीत रूपसे ?" इत्यादि कुतर्क किये हैं, वे तो सचमुच ही अज्ञानके भद्दे प्रदर्शन रूप हो हैं। यद्यपि आजकी दृष्टसे हम बीते हुए पदार्थोंको अतीत तथा आगे होनेवाले पदार्थोंको अनागत कहते हैं और वे इस समय असत् हैं विद्यमान नहीं हैं, परन्तु अतीतकालमें तो थे ही, आगे तो होंगे ही, अतः बीते हुए पदार्थोंको अतीतकालमें असत् तथा आगे होनेवाले पदार्थोंको भाविकालमें तो असत् नहीं कह सकते । सर्वज्ञ तो जो वस्तु जिस समय जैसी है उसको उस समय उसी रूप में जानता है। अतीतको अतीत रूपमें, अनागतको भावि रूपमें तथा वर्तमानको वर्तमान रूपमें ही जानता है। पदार्थको जब जो हालत थी, है और होगी वह ठीक उसी रूपमें सर्वज्ञके ज्ञानमें झलकती है। इस तरह समस्त बाधक प्रमाणोंका निराकरण करनेसे उनकी अच्छी तरह असम्भवता सिद्ध होनेपर सर्वज्ञको सत्ता निर्बाध रूपसे उसी तरह सिद्ध हो जाती है जैसे सुखी पुरुषको 'मैं सुखी हूँ' इस स्वसंवेदनसे सुखका निर्बाध अनुभव होकर सुखकी सत्ता सिद्ध होती है। अतः यह बेधड़क होकर कहा जा सकता है कि-'सर्वज्ञ है, क्योंकि उसकी सर्वज्ञताके बाधक प्रमाणोंकी असम्भवता अच्छी तरह निश्चित है वह पूर्णतः निर्बाध है, जैसे कि सुखी व्यक्तिका सुख ।' ७८. दिगम्बर (पूर्वपक्ष)-'बाधक प्रमाणोंकी असम्भवता दिखाकर सर्वज्ञकी सिद्धि करना तो उचित ही है। परन्तु सर्वज्ञ केवली भी हम लोगोंकी ही तरह कवलाहार-एक-एक ग्रास लेकर भोजन करता है यह बात नहीं जंचती। हम सिद्ध करते हैं कि-'केवली ग्रास लेकर आहार नहीं करते, क्योंकि जिन कारणोंसे प्रेरित होकर मनुष्य आहार करनेके लिए बेचैन हो १. यथा आ.। क.। २. ततो म. २। ३. यथातीतं गतकाले म. २। ४. यथा भावि च भविष्यत काले वति-म. २। ५. "न चैकेन ज्ञानेन परिच्छिन्नानीत्येतावता वस्तूनामात्मस्वभावहानिः । येन तान्येकज्ञानपरिच्छेदवशादनन्तत्वमात्मस्वभावं जह्यः।"यत एवासौ पर्यन्ततया न गृह्णाति तत एव सर्वज्ञो भवति । अन्यथाऽनन्तं वस्त्वन्तवत्त्वेन गृह्णन् भ्रान्तो भवेत् ।" -तश्वसं. प. पृ. ९३० । न्यायकुमु. पृ. १६ । ६. सिद्धाः स्वसंवेदनप्रत्यक्षलक्षणसुखादिवत् भ. २ । ७. तदस्ति सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवत् ॥" -लघी. स्व. इको. । सिद्धिवि.। अष्टश.. अष्टसह. पृ. ४४ । आप्तप. प. २२६ । त. इलो. पृ. १८५। प्रमाणनि. पृ. २९ । प्र. मी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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