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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ४६. ६७४
९ ७४. यच्चोक्तम्- 'सर्वं वस्तुजातं केन प्रमाणेन इत्यादि; तदप्युक्तम्; सकलज्ञानावरणविलयोत्थाविकलकेवलालोकेन सकललोकालोकादिवस्तुवे तृत्वात्सर्वज्ञस्येति ।
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६ ७५. यच्चोक्तं 'अशुच्याविरसास्वाद' इत्यादि; तदपि परं प्रत्यसूयामात्रमेव व्यनक्ति; सर्वज्ञस्यातीन्द्रियज्ञा नित्वेन करणव्यापारनिरपेक्षत्वात् जिह्वेन्द्रियव्यापारनिरपेक्षं यथावस्थितं तटस्थतयैव वेदनं न तु भवद्वत्तद्व्यापारसापेक्षं वेदनमिति ।
६ ७६. यवयवादि 'कालतोऽनाद्यनन्तः संसारः' इत्यादि, तदप्यसम्यक् युगपत्संवेदनात् । न च तदसंभवि वृष्टत्वात् । तथाहि- - यथा स्वभ्यस्तसकलशास्त्रार्थः सामान्येन, युगपत्प्रतिभासते गति नहीं होती फिर इससे इसका अभाव तो नहीं किया जा सकता । अतः सर्वज्ञाभाव सिद्ध करने के लिए आपका 'पांचों प्रमाण जहाँ प्रवृत्ति न करें वहाँ अभाव प्रमाणका राज्य है' इत्यादि कथन अनैकान्तिक है ।
७४. आपने यह पूछा था कि - 'सर्वज्ञ समस्त वस्तुओंको किस प्रमाणसे जानता है ?” सो सर्वज्ञ सभी वस्तुओंको अपने केवलज्ञानरूपी आलोक द्वारा प्रत्यक्ष रूपसे ही जानता है । केवलीने ज्ञानमें विघ्न करनेवाले जितने प्रतिबन्धक ज्ञानावरण थे उन सबका अत्यन्त नाश कर दिया है, इसलिए उसका ज्ञान अपने पूर्वरूप में प्रकाशमान है । उसमें सभी पदार्थ ऐसे ही झलकते हैं जैसे कि निर्मल दर्पण में सामने रखी हुई वस्तुएँ ।
$ ७५. आपका अशुचि पदार्थोंके रसास्वादनवाला कुतर्क तो बुद्धिके विपर्यासका तथा हृदयकी जलनका जीता-जागता प्रमाण है । सर्वज्ञका ज्ञान इन्द्रियोंकी सहायता से उत्पन्न नहीं होता, वह तो अतीन्द्रिय है. आत्माका निजी पूर्ण प्रकाश है। उसे इन्द्रियोंके व्यापारकी कोई आवश्यकता नहीं है । रसका आस्वादन दूसरी चीज है तथा उसका ज्ञान एक पृथक् ही वस्तु है । आस्वादन जीभके द्वारा होता है जब कि उसके ज्ञानके लिए उसे जीभपर रखना कोई आवश्यक नहीं है । केवलीको अपने अतीन्द्रिय ज्ञानके द्वारा रसका ज्ञान होता है । आस्वादनका मजा तो रागी व्यक्ति अपनी जीभके द्वारा लेते हैं । वीतरागी अतीन्द्रियज्ञानी केवलीके विषयमें आस्वादनकी बात करना निपट मूर्खता है। जो वस्तु जैसी है उसका उसी रूप में तटस्थ भावसे अच्छी और बुरी कल्पना किये बिना केवलीको मात्र शुद्ध परिज्ञान होता है, उसका अच्छे या बुरे रूपमें दर्शन तो रागियोंके दूषित ज्ञानमें ही हुआ करते हैं । वह तो जानता है, केवल जानता ही है । ६ ७६. आपकी 'काल तो अनन्त हैं, पदार्थं भी अनन्त हैं, उनका एक-एक करके परिज्ञान तो अनन्तकाल में भी नहीं हो सकता' यह शंका भी अज्ञानका प्रदर्शन ही है । क्योंकि — हम पहले ही बता चुके हैं कि केवलीका ज्ञान क्रमिक नहीं है, वह तो सभी वस्तुओंको युगपत् जानता है । जब अनेक वस्तुओंका युगपत् ज्ञान तो हम जैसे अल्पज्ञ होनशक्तिवालोंको भी देखा जाता है, तब बिलकुल निरावरण अनन्तज्ञानवाले अनन्तशक्तिशाली केवलीको समस्त पदार्थोंका युगपत्
१. " तटस्थस्य हि संवित्तौ न रागित्वादिसंभवः । अनेनाशुचिरसादिवेदनेऽपि दोषः प्रत्युक्तः । अपवित्रत्वयोगः स्यादिन्द्रियेणास्य वेदने । कर्मजेन न चान्येन भावनाबलभाविना ॥ ५७६|| " प्र. वार्तिकाळ. पृ. ३३० । " तस्मान्न विषयानुभवः केवल एव सुखदुःखहर्षविषादामर्षादिहेतुः । किन्तु कारणान्तरसहितः । तच्च कर्मैव भवितुमर्हति । .... तच्च निरस्ताशेषदोषावरणस्य नास्तीति केवलो विषयानुभवस्तस्योपेक्षामेव सर्वत्र जनयति न सुखदुःखादिकम् । निःशेषदोषावरण विश्लेषं च समर्थयिष्यामः ।" - बृहत्सर्वशसि पृ. १७९ । प्रमेयक. पृ. २६० । २. " एकज्ञानक्ष णव्याप्त निःशेषज्ञेयमण्डलः । प्रसाधितो हि सर्वज्ञः क्रमो नाश्रीयते ततः ।। ३६२७॥" तत्वसं. पू. ९२९ । " ततोऽस्य वीतरागत्वे सर्वार्थज्ञानसंभवः । समाहितस्य सकलं चकास्तीति विनिश्चितम् ॥ ३२९॥ इति चेन्नाक्रमेणैव सर्वार्थानां
प्रवेदनात् । " - प्र. वार्तिकाल. पृ. ३३० ।
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