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-का० ४६. ६७३ ] जैनमतम्।
२०१ ६७१. नाप्युपमानं तद्बाधकम्'; तत्खलुपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सति गोगवयवत् स्यात् । न चाशेषपुरुषाः सर्वज्ञश्व केनचिदृष्टाः येन 'अशेषपुरुषवत्सर्वज्ञः सर्वज्ञवद्वा ते' इत्युपमानं स्यात् । अशेषपुरुषदृष्टौ च तस्यैव सर्वज्ञत्वापत्तिरिति ।
६७२. नाप्यर्थापत्तिस्तद्बाधिका; सर्वज्ञाभावमन्तरेणानुपपद्यमानस्य कस्याप्यर्थस्याभावात्, वेदप्रामाण्यस्य च सर्वज्ञे सत्येवोपपत्तेः। न हि गुणवद्वक्तुरभावे वचसां प्रामाण्यं घटत इति न सर्वज्ञे बाधकसंभवः, तवभावे च प्रमाणपश्चकाप्रवृत्तिरप्यसिद्धा।
७३. तथा यदुक्तम्-'प्रमाणपञ्चकाप्रवृत्त्याभावप्रमाणविषयत्वम; तदप्यनैकान्तिकम् हिमवत्पलपरिमाणपिशाचादीनां प्रमाणपञ्चकाप्रवृत्तांवप्यभावप्रमाणगोचरत्वाभावादिति-"प्रमाणपञ्चकं यत्र" इत्याद्यपास्तं द्रष्टव्यम्। जो सर्वज्ञताका स्पष्ट रूपसे प्रतिपादन करते हैं।
७१. उपमान प्रमाणसे भी सर्वज्ञका निषेध नहीं हो सकता। जहां उपमान तथा उपमेय दोनों पदार्थ प्रत्यक्षसे अनुभवमें आते हैं वहां 'यह गवय-रोज गौके समान है' यह उपमान लगाया जा सकता है। गौ और रोज दोनों ही प्रत्यक्ष सिद्ध पदार्थ हैं अतः वे उपमान प्रमाणके दायरेमें आ जाते हैं। पर 'कोई भी अल्पज्ञ व्यक्ति संसारके समस्त पुरुषोंका तथा सर्वज्ञका प्रत्यक्ष नहीं कर सकता, जिससे वह अमुक सर्वज्ञ हम सब प्राणियोंकी तरह है या हम सब उसके समान हैं। इस उपमानको कर सकें। क्योंकि जिस क्षण भी उसने समस्त पुरुषोंका और सर्वज्ञका साक्षात्कार किया उसी क्षण वह स्वयं सर्वज्ञ हो जाता है और इस तरह सर्वज्ञतामें बाधा देनेकी बजाय वह उसका जीवन्त प्रमाण बन जाता है। तात्पर्य यह कि उपमान प्रमाणकी इतनी शक्ति नहीं है जो सर्वज्ञताका निषेध कर सके।
६७२. अर्थापत्ति प्रमाण भी सर्वज्ञतामें बाधा देनेका साहस नहीं कर सकता। यदि सर्वज्ञके अभावके साथ ही खास सम्बन्ध रखनेवाला सर्वज्ञके अभावके बिना नहीं होनेवाला कोई पदार्थ मिलता तो उसके द्वारा सर्वज्ञका अभाव किया जा सकता था, परन्तु सर्वज्ञ भावके ही साथ रहनेवाला कोई भी पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। वेदमें प्रमाणता भी सर्वज्ञसे ही आ सकती है। सर्वज्ञके बिना 'इस वेद वाक्यका यही अर्थ है दूसरा नहीं इस तरह वेदके अर्थका निर्णय होना भी असम्भव ही है। गुणवान् वक्ताके ही वचन प्रमाणभूत होते हैं । जिस वचनका प्रतिपादक गुणवान् निर्दोष पुरुष नहीं है उसमें प्रमाणताको बात करना तो शेखचिल्लीको कल्पना ही है। इस प्रकार अर्थापत्तिसे भी सर्वज्ञमें बाधा नहीं आ सकती।
६७३. इस तरह जब प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण तो सर्वज्ञतामें बाधा नहीं देते और सर्वज्ञको सिद्ध करनेवाले ही अनेक अनुमान मौजूद हैं तब पाँच प्रमाणोंकी अप्रवृत्ति कहकर सर्वज्ञका अभाव करना सरासर आंखोंमें धूल झोंकना है। फिर यह भी तो नियम नहीं है कि 'जहाँ पांच प्रमाणोंकी प्रवृत्ति न हो उस वस्तुका अभाव होता है'। देखो, हिमालय पर्वतका कितनी रत्ती वजन है, पिशाच कितना बड़ा तथा कैसा है, इन सबमें हमारे किसी भी प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंकी
१. "नोपमानमशेषाणां नृणामनुपलम्भतः। उपमानोपमेयानां तबाधकमसम्भवात् ॥" -आप्तप. श्लो. १०१। न्यायकुम. पृ. १४। तत्वसं पृ. ९१७। २. सर्वज्ञाश्च भ.२। ३. "नार्थापत्तिरसर्वज्ञ जगत्साधयितुं क्षमा । क्षीणत्वादन्यथाभावाभावात्तत्तदबाधिका ॥"-आप्तप. इको.१.२ । न्यायकुमु. पृ. ९४ । ४. "अभावोऽपि प्रमाणं ते निषेध्याधारवेदने । निषेध्यस्मरणे च स्यान्नास्तिताज्ञानमञ्जसा ॥१०५॥ न चाशेषजगज्ज्ञानं कूतश्चिदुपपद्यते। नापि सर्वज्ञसंचित्तिः पूर्व तत्स्मरणं कुतः ॥१०६॥ येनाशेषजगत्यस्य सर्वज्ञस्य निषेधनम् । -आप्तप. श्लो. १०५-६ । न्यायकुमु. पृ. ९ । त. इको. पृ. १४ । ५. -पिशाचादिभिः तेषां प्रमाण-आ. ।
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