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________________ २०० षड्दर्शनसमुच्चये [ का०४६.६७०व्यतिरेकासिद्धयो संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वात् सर्वज्ञोऽपि भविष्यति वक्तापीति । तन्नानुमान सर्वज्ञबाधकम् । ७०. नाप्यागमः, स हि पौरुषेयोऽपौरुषेयो वा । न तावदपौरुषेयः तस्याप्रामाण्यात, वचनानां गुणवद्वक्त्रा (क्त्र) धीनतया प्रामाण्योपपत्तेः। किं च अस्य कार्य एवार्थे प्रामाण्याभ्युपगमान सर्वतः स्वरूपनिषेधे प्रामाण्यं स्यात् । न चाशेषज्ञों भावसाधकं किंचिद्वेदवाक्यमस्ति, "हिरण्यगर्भः सर्वज्ञः" इत्यादिवेदवाक्यानां तत्प्रतिपादकानामनेकशः श्रवणात। उस बेचारे तटस्थ वक्तृत्वको इस झगड़ेमें घसीटा जाता है। उसके लिए तो जैसी सर्वज्ञता है वैसी ही असर्वज्ञता । आप चाहे सर्वज्ञ हों तो भी बोलेंगे, असर्वज्ञ हों तो भी बोलेंगे। इस तरह वक्तृत्व हेतु सर्वज्ञरूप विपक्षमें भी पाया जाता है या उसमें पाये जाने में उसका कोई विरोध नहीं है अतः यह सन्दिग्धानेकान्तिक है। सर्वज्ञ होनेसे क्या किसीकी जबान बन्द हो जाती है? 'सर्वज्ञ भी रहे और बोले भी' इसमें किसी एतराजकी गुंजाइश ही नहीं है। इस विवेचनसे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि कोई भी अनुमान सर्वज्ञताका बाल भी बांका नहीं कर सकता, उसके खण्डनकी तो बात ही क्या। ७०. आगमसे भी सर्वज्ञतामें कोई बाधा नहीं आती। बताओ कौन-सा आगम सर्वज्ञताका विरोध करता है जो अपौरुषेय है, अर्थात् किसी पुरुषने नहीं बनाया किन्तु जो स्वयं सिद्ध है वह वेद सर्वज्ञताको नहीं सह सकता, या किसी पुरुष विशेषके द्वारा रचा गया पौरुषेय आगम ? अपौरुषेयवेदमें जब प्रमाण ही सिद्ध नहीं है तब उससे सर्वज्ञताको बाधा होना दूरकी बात है। वचनोंमें प्रमाणता तो वक्ताके गुणोंसे आती है । गुणवान् निर्दोष वक्ता होगा तो वचन भी यथार्थ तथा प्रामाणिक होंगे, वक्ता यदि अज्ञानी या कषायवाला है तो उसके वचन भी मिथ्या तथा विसंवादी होंगे। जब वेदका कोई आद्य वक्ता हो नहीं है तब उसमें प्रमाणता कैसे मानी जा सकती है ? दूसरे, आप वेदको स्वरूप प्रतिपादक ही नहीं मानते । आपका तो मत है कि-वेदका हर एक शब्द अग्निष्टोम आदि यज्ञ रूप कार्योका ही प्रतिपादन करता है और वह कार्य अर्थ में ही प्रमाण है। वह किसीके स्वरूप प्रतिपादन या उसके निषेध में प्रमाण ही नहीं है । वेदमें जो 'सर्वज्ञ, सर्ववित्' आदि शब्द आते हैं आप उन्हें सर्वज्ञके स्वरूपका प्रतिपादक ही नहीं मानते। आप तो कहते झे कि-ये सर्वज्ञ आदि शब्द किसी यज्ञ विशेषको स्तुति करनेके लिए हैं। सर्वज्ञके स्वरूपका प्रतिपादन करने के लिए नहीं हैं । 'जो अग्निष्टोम या अन्य कोई विवक्षित यज्ञ करता है वही सर्वज्ञ है, वही सर्ववित् है' इस तरह किसी यज्ञ आदिकी स्तुति करना ही सर्वज्ञ आदि शब्दोंका कार्य है। इस प्रकार जब वेदका कोई भी शब्द स्वरूपार्थक नहीं है तब उसके किसी शब्दके द्वारा असर्वज्ञताका विधान या सर्वज्ञताका निषेध कैसे किया जा सकता है ? फिर, वाला कोई वेदवाक्य भी उपलब्ध नहीं है। वेदमें कोई भी ऐसा शब्द नहीं जिससे सर्वज्ञताका सीधा खण्डन होता हो । बल्कि वेदमें "हिरण्यगर्भ सर्वज्ञः" इत्यादि अनेकों वाक्य ऐसे मिलते हैं १. ".."उक्त्यादेर्दोषसंक्षयः ॥ नेत्येके व्यतिरेकोऽस्य संदिग्धाव्यभिचार्यतः।" -प्र. वा. ११४ । "उच्यते यदि वक्तृत्वं स्वतन्त्रं साधनं मतम् । तदानीमाश्रयासिद्धः सन्दिग्धासिद्धताऽथवा ॥३३७१ । अस्य चार्थस्य सन्देहात्सन्दिग्धासिद्धता स्थिरा।"-तत्त्वसं. पृ. ४४ । २. वा स्यात् न म. २ । ३.-ज्ञानाभाव-म. २। आ. क.। ४. “स सर्ववित् स लोकवित् इत्यादेः हिरण्यगर्भः सर्वज्ञः इत्यादेश्च आगमस्य।" -स्वार्थश्लो. पृ. १५। "हिरण्यगर्भ। प्रकृतस्य सर्वज्ञः।"-न्यायमु. पृ. ८७ । सन्मति. टी. पृ. ४३ । स्या. रत्ना. पृ. ३६४ । शास्त्रवा. टी. पृ. ४९ पृ.। वृ. सर्वज्ञसि. पृ. १३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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