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________________ - का० ४६. ६६९ ] जैनमतम् । १९९ ६७. किच असर्वज्ञत्वे' साध्ये सर्वज्ञस्य प्रमाणविरुद्धार्थववतृत्वम् तद्विपरीतम्, वक्तृत्वमात्र वा हेतुत्वेन विवक्षितम् । प्रथमोऽसिद्धो हेतुः, सर्वज्ञस्य तथाभूतार्थवक्तृत्वासंभवात् । द्वितीयपक्षे तु विरुद्ध, दृष्टेष्टाविरुद्धार्थ वक्तृत्वस्य सर्वज्ञत्वे सत्येव संभवात् । ' तृतीयपक्षेऽप्यनैकान्तिकः, वक्तृत्वमात्रस्य सर्वज्ञत्वेन विरोधासंभवात् । 3 ६८. एतेन सुगतादिर्घाम पक्षोऽपि प्रत्याख्यायि, प्रोक्तदोषानुषङ्गा विशेषात् । किंच, प्रतिनियत सुतादेः सर्वज्ञता निषेधेऽन्येषां तद्विधिरवश्यंभावी, विशेषनिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञानान्तरीयकत्वात्, 'अयमब्राह्मण:' इत्यादिवदिति । ६९. अतः सर्वपुरुषानुररीकृत्य तेषामसर्वज्ञता वक्तृत्वादेः साध्यते; तन्न; विपक्षात्तस्य § ६७. अच्छा यह बताओ कि - प्रमाणविरोधी असत्य कथन करनेके कारण आप उसे सर्वज्ञ कहते हैं, अथवा सत्य कथन करनेके कारण, या 'बोलता है इसीलिए असर्वज्ञ है' इस तरह बोलने मात्र हो ? पहली कल्पना तो आपकी निरी कल्पना ही है; क्योंकि जो सर्वज्ञ है वह प्रमाण-विरोधी असत्य कथन कर ही नहीं सकता। जब वस्तुके यथार्थ स्वरूपका उसे परिज्ञान है तथा वह वीतरागी है तब वह मिथ्या क्यों बोलेगा ? पदार्थका ठीक ज्ञान न होनेसे अथवा रागआदि कषायों के कारण हो मनुष्य मिथ्याप्रलाप करते हैं, ज्ञानी और वीतरागी महात्माओं में तो मिथ्या बोलने का कोई कारण ही नहीं है ? दूसरा विकल्प तो विरुद्ध है । जब वह प्रामाणिक अर्थात् प्रत्यक्ष और अनुमान आदिसे बाधित न होनेवाला सत्य कथन कर रहा है तब असर्वज्ञ कैसे होगा ? प्रामाणिक वक्तृत्व तो असर्वज्ञताका विरोधी है, वह तो सर्वज्ञताको ही सिद्ध करता है । अतः आप सिद्ध करने तो चले थे असर्वज्ञ और सिद्ध हो गया सर्वज्ञ । अतः यथार्थ वक्तृत्व तो असर्वज्ञताका विरोधी होनेसे विरुद्ध है। बोलना तो जैसे असर्वज्ञमें पाया जाता है उसी तरह सर्वज्ञमें भी रहता है । अतः बोलने मात्रसे सर्वज्ञता या असर्वज्ञता सिद्ध नहीं की जा सकती । बोलने का सर्वज्ञता से कोई विरोध तथा असर्वज्ञतासे कोई मित्रता नहीं है । चीज है । अतः बोलना मात्र व्यभिचारी होनेसे असर्वज्ञता नहीं साध सकता । वह तो एक साधारण $ ६८. इसी तरह बुद्ध आदि किसी खास व्यक्तिको धर्मी मानकर उसकी सर्वज्ञताका निषेध करने में भी ऊपर कहे गये सभी दूषण आते हैं । फिर, आप किसी खास सुगत या कपिल में सर्वज्ञता का निषेध कर भी दोगे तो भी इससे सर्वज्ञताका समूल लोप तो नहीं हो सकता। जब आप यह कहोगे कि - 'बुद्ध या कपिल सर्वज्ञ नहीं हैं' तो इसका अर्थ ही यह होता है कि 'इनके सिवाय कोई दूसरा व्यक्ति सर्वज्ञ है ।' किसी विशेष व्यक्ति में किसी विशेष धर्मका निषेध करनेसे शेष व्यक्तियोंमें उस धर्मका सद्भाव अपने ही आप सिद्ध हो जाता है । जैसे ब्राह्मणों के मुहल्ले में चारपाँच लड़के एक साथ खेल रहे थे । उनमें से किसी खास लड़के की ओर इशारा करके 'यह ब्राह्मण नहीं है' यह कहने का मतलब ही यह निकलता है कि बाकी सब लड़के ब्राह्मण हैं । उसी तरह महावीर, कपिल, सुगत, शिव आदिमें से किसी कपिल आदिमें हो सर्वज्ञताका निषेध कर उसमें असर्वज्ञता सिद्ध करनेका तात्पर्य यह है कि बाकी महावीर आदि सर्वज्ञ हैं । अतः इस ढंग से भी सर्वज्ञताका अत्यन्त निषेध नहीं किया जा सकता । $ ६९. 'संसारके सभी पुरुष असर्वज्ञ हैं, क्योंकि वे वक्ता हैं - बोलते हैं' इस तरह सभी पुरुषोंको धर्मी मानकर भी असर्वज्ञता सिद्ध करना महज जवानकी बुलास मिटाता ही है; क्योंकि जब बोलने का सर्वज्ञताके साथ कोई भी विरोध तथा असर्वज्ञतासे कोई रिश्तेदारी नहीं है तब क्यों १. " किं च सर्वविदः प्रमाणविरुद्धार्थ वक्तृत्वं हेतुत्वेन विवक्षितम्, तद्विपरीतम् वक्तृत्वमात्रं वा ।" -न्यायकुमु. पृ. ५३ । प्रमेयक, पृ. २६३ । सम्मति टी. पृ. ४५ । स्या, रत्ना, पृ. ३८४ । प्रमेयरत्न. प. ५७ । २. द्वितीयपक्षो विरु-म. २ । ३. सत्परिज्ञाने सत्येव म. २ । ४ - पक्षोऽप्यनै- म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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