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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ४६. ६ ६५ - भावसाधकः, रोमहर्षादिकारणशीतविरुद्धाग्निविधानात् क्वचित्कदाचिच्छीतकार्यरोमहर्षादिनिषेधवत न पुनः साकल्येन, सकलकर्माप्रक्षयस्य साकल्येन संभवाभावात्, क्वचिदप्यात्मनि तस्याग्रे प्रसाधयिष्यमाणत्वात् । नापि विरुद्धकार्यविधिः, सर्वज्ञत्वेन हि विरुद्धं किंचिज्जत्वं तत्कायं नियतार्थविषयं वचः तस्य विधिः स च न सामस्त्येन सर्वज्ञाभावं साधयेत् । यत्रैव हि तद्विधिस्तत्रैवास्य तदभावसाधनसमर्थत्वात्, शीतविरुद्धवदनकार्यधूमविशिष्ट प्रदेश एवं शीतस्पर्श निषेधवत्, तन्न विरुद्धविधिरपि 'सर्वविदो बाधकः।। ६६५. नापि वक्तृत्वादिकम्, सर्वज्ञसत्त्वानभ्युपगमे तस्यानुपपत्त्यासिद्धत्वात्, तदुपपतौ च स्ववचनविरोधो 'नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वादिधर्मोपेतश्चेति' तन्न सर्वज्ञस्यासत्त्वं कुतोऽपि हेतोः साधयितुं शक्यम् । $ ६६. नाप्यसर्वज्ञत्वं साध्यं सर्वज्ञोऽसर्वज्ञ इत्येवं, विरोधस्यात्राप्यविशिष्टत्वात् । जायेगा वही आत्मा उसी समय सर्वज्ञतासे शून्य कहा जा सकता है न कि सभी आत्माएं सभी समयोंमें। 'सभी आत्माओंमें कर्मोंका सदा सद्भाव रहेगा' यह विधान करना तो सर्वज्ञके ही अधिकारकी बात है हम लोगोंके अधिकारकी नहीं। जैसे ठण्ड में ठिठुरनेके कारण होनेवाले रोमांच आग तापनेसे शान्त हो जाते हैं, अतः जो आदमी जब आग तापेगा तभी उसीके रोमांच शान्त होंगे सबके रोमांच सदाके लिए शान्त नहीं हो सकते। हम आगे यह सिद्ध करेंगे कि कोई. विशिष्ट आत्माएँ अपने योगबलसे कर्मबन्धनोंको तोड़कर निरावरण हो जाते हैं। इसी तरह सर्वज्ञके विरुद्ध असर्वज्ञके कार्योंका विधान करके भी सर्वज्ञका सर्वथा, सर्वदा तथा सर्वत्र निषेध नहीं किया जा सकता। सर्वज्ञताका सीधा विरोध अल्पज्ञतासे है। अल्पज्ञताका कार्य है नियत पदार्थों के स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाले वचन । सो इनका विधान भी जिस आत्मामें जब किया जायेगा वह आत्मा उसी समय सर्वज्ञतासे रहित कहा जा सकता है। सभी आत्माएं सब समयके लिए असर्वज्ञ नहीं। जैसे ठण्डक आग सुलगते ही समाप्त हो जाती है, अतः जहाँ और जब आगका कार्य धुंआ होगा वहीं तभी ठण्डकका निषेध किया जा सकता है, उससे सब जगह और सब समयोंमें ठण्डकका निषेध नहीं हो सकता। इस प्रकार जब विरुद्ध विधिका कोई भी प्रकार सर्वज्ञका अभाव सिद्ध नहीं कर सकता तब विरुद्ध विधि भी सर्वज्ञको बाधक नहीं हो सकती। ६६५. वक्तृत्व हेतु भी सर्वज्ञका बाधक नहीं है । जब सर्वज्ञको सत्ता ही नहीं है तब सर्वज्ञका बोलना कैसा ? जो आदमी अपना अस्तित्व रखता है वहो तो बोलता है। यदि सर्वज्ञ है; तब उसका निषेध कैसा? 'सर्वज्ञ है भी नहीं और वह बोलता भी है' यह तो स्पष्ट ही अपने वचनका खुद ही विरोध करना है। जब वह है ही नहीं तब बोलता कौन है ? यदि वह बोल रहा है तब उसका अभाव कैसे ? 'उसका अभाव भी हो, और वह बोले भी' ये दोनों बातें साथ-साथ नहीं बन सकती। यह तो ऐसा ही है जैसे कोई सपूत अपनी माताको बन्ध्या कहे। इस तरह कोई भी हेतु सर्वज्ञका अत्यन्त अभाव सिद्ध करने में समर्थ नहीं है। ६६६. सर्वज्ञको धर्मी बनाकर उसमें असर्वज्ञता सिद्ध करना भी परस्पर विरोधी है। जब वह सर्वज्ञ है ही तब उसमें असर्वज्ञता कैसे सिद्ध हो सकती है ? 'सर्वज्ञ भी है असर्वज्ञ भी है' ये तो परस्पर विरोधी बातें हैं। १. सर्वज्ञबाधकः म. २। २. "अयं च वक्तृत्वाख्यो हेतुः 'यस्य ज्ञेयप्रमेयत्ववस्तुसत्त्वादिलक्षणा' इत्यत्रादिशब्देनाक्षिप्त एवेति ।"तदत्रादिपदाक्षिप्तो वक्तत्वे योऽभिमन्यते । निश्चयं व्यतिरेकस्य परस्परविरोषतः ॥३३५९॥"-तस्वसं. पृ.८८१। ३. एतस्या-भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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