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-का०४३.६४] .
जैनमतम् । सर्वत्र सर्वदा वा तयापकविरुद्धशीताभावो दृष्टः। द्वितीयोऽध्ययुक्तः, अग्दिशः सर्वत्र सर्वदा वा सर्वज्ञत्वविरुद्धासर्वज्ञत्वविधरसंभवात् तत्संभवे च तस्यैव सर्वज्ञत्वापत्तेः सिद्धं नः समोहितम् ।
६४. परम्परयापि कि तद्वयापकविरुद्धस्य, तत्कारणविरुद्धस्य तत्कार्यविरुद्धस्य वा विधिः सर्वज्ञाभावमाविर्भावयेत् । न तावद्वयापकविरुद्ध विधिः स हि सर्वज्ञस्य व्यापकमखिलार्थसाक्षाकारित्वं तेन विरुद्धं तदसाक्षात्कारित्वं नियतार्थग्राहित्वं वा तस्य च विधिः कचित्कदाचित्तदभावं साधयेन्न पुनः सर्वत्र सर्ववाँ वा, तुषारस्पर्शव्यापकशीतविरुद्धाग्निविधानात क्वचित्कदाचित्तुषारस्पर्शनिषेधवत् । कारणविरुद्धविधिरपि कचित्कदाचिदेव सर्वज्ञाभावं साधयेत्, न सर्वत्र । सर्वज्ञत्वस्य हि कारणमशेषकर्मक्षयः, तद्विरुद्धस्य कर्माक्षयस्य च विधिः क्वचित्कदाचिदेव सर्वज्ञा
समयके लिए विधान किया जाता है तब उससे सर्वज्ञका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। जहाँ जिस समय असर्वज्ञकी विधि रहेगी वहां उस समय ही सर्वज्ञका अभाव किया जा सकता है, दूसरे देश तथा दूसरे समयमें नहीं। अपने मकानकी एक कोठरीमें आग सुलगानेसे सारे संसारमें या वहीं हमेशाके लिए तो शीतका अभाव नहीं हो सकता। जहां और जब आग सुलगाओगे वहीं और तभी ठण्डक नष्ट होगी। असर्वज्ञके लिए तीनों लोक तथा तीनों कालका पट्टा लिख देना हम जैसे असर्वज्ञोंका कार्य नहीं है। क्योंकि असर्वज्ञकी त्रैकालिक तथा सार्वत्रिक जिम्मेवारी तो वही व्यक्ति ले सकता है जिसे तीनों काल तथा लोकोंका यथावत् परिज्ञान हो। और यदि ऐसा कोई त्रिकाल-त्रिलोकज्ञ मिलता है, तो बड़ी खुशीकी बात है । हमारा भी तो मतलब त्रिकालत्रिलोकको जाननेवाले सर्वज्ञसे ही है। हमारे लिए तो वही सर्वज्ञ है।
६४. सर्वज्ञका परम्परासे विरोध करनेवाले पदार्थोंका विधान करके सर्वज्ञका अभाव सिद्ध करना भी मनके लड्डू खाने जैसा ही है । आप यह बताइए कि-आप सर्वज्ञके व्यापक धर्मका विरोध करके सर्वज्ञका लोप करोगे या सर्वज्ञके कारणका विरोध करके अथवा सर्वज्ञके कार्यों का विरोध करके ? पहला विकल्प मानकर तो सर्वज्ञका अत्यन्त अभाव नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'सर्वज्ञका व्यापक धर्म है सकल पदार्थों का साक्षात्कार करना, उसके सीधे विरोधी हो तो 'सकल पदार्थों को नहीं जानना' या 'कुछ पदार्थोंका जानना' ये दो ही हो सकते हैं। सो इन दोनोंका विधान करके भी किसी खास देश या किसी खास समयमें ही सर्वज्ञका निषेध हो सकता है। 'संसारके समस्त प्राणी सदा सकल पदार्थोंको नहीं जानते या कुछ ही पदार्थोंको जानते हैं' ऐसा त्रैकालिक विधान करना तो असर्वज्ञके वशको बात नहीं है। वह तो अपने परिचित लोगोंमें ही ऐसा विधान कर सकता है, अतः जहां और जिस समयके लिए उन दोनोंका विधान किया जायेगा वहीं और उसी समय सर्वज्ञका निषेध हो सकता है । दूसरी जगह तथा दूसरे समयमें नहीं। देखो, तुषारका व्यापक धर्म है ठण्डक, इस ठण्डककी साक्षात् विरोधी अग्नि जब और जहां सुलगायी जायेगी तभी और वहीं तुषार तथा उसकी ठण्डकका लोप हो सकेगा अन्यत्र और दूसरे समयमें नहीं। इसी तरह सर्वज्ञके कारणोंके विरोधीका विधान करके भी सर्वज्ञका क्वचित् तथा किसी खास समयमें ही निषेध किया जा सकता है तीनों लोकोंमें सदाके लिए नहीं। सर्वज्ञताका कारण है सर्वज्ञताको रोकनेवाले ज्ञानावरण आदि कोका नाश, इसका सीधा विरोधी है उन कर्मोंका सद्भाव । सो इन ज्ञानावरण आदि कर्मोंके सद्भावका विधान भी जिस आत्मामें जिस समय किया
१. -मादिशेत आ., क.। २.-धिः सर्व-म.२। “यद्वा-अर्थान्तरस्य साक्षापारम्पर्येण वा विरुद्धस्यैव विधानात्तनिषेषः, नाविरुद्धस्य, तस्य तत्सहभावसंभवात् । यथा-नास्त्यत्र शीतस्पर्शो वह्वेरिति साक्षाद्विरुद्धस्य वह्नविधानाच्छीतस्पर्श निषेधः, तद्वत्सर्वज्ञनिषेधेऽपि स्यात"""-तस्वसं. पृ.८५२। न्यायकुमु. पृ. ९२ । ३.-दा तुषा-भ.३। ४. -येत् सर्वत्र सर्वदा सर्व-भ.२। ५. कर्माप्रक्षयस्य म. ।
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