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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [ का. ४६. ६ ६१ - त्वात् । न खलु सर्वात्मनां तज्ज्ञानानां चाप्रतिपत्तौ तत्संबन्धी सर्वज्ञानुपलम्भः प्रतिपत्तुं शक्यः । नापि कारणानुपलम्भः, तत्कारणस्य ज्ञानावरणादिकर्मप्रक्षयस्यानुमानेनोपलम्भात् । एतत्साधक चानुमानं, युक्तयश्चाग्रे वक्ष्यन्ते।। ६६१. कार्यानुपलम्भोऽप्यसिद्धः, तत्कार्यस्याविसंवाद्यागमस्योपलब्धेः। ६.६२. व्यापकानुपलम्भोऽप्यसिद्धः, तद्वयापकस्य सर्वार्थसाक्षात्कारित्वस्यानुमानेन प्रतीतेः। तथाहि-अस्ति कश्चित्सर्वार्थसाक्षात्कारी, तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात् । यद्यद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धकं तत्तत्साक्षात्कारि, यथापगततिमिरादिप्रतिबन्ध लोचनं रूपसाक्षात्कारीति नानुपलम्भादिति साधनं सर्वज्ञाभावं साधयति । ___६६३. विरुद्धविधिरपि साक्षात्परंपरया वा सर्वज्ञाभावं साधयेत् । प्रथमपक्षे सर्वज्ञत्वेन साक्षाद्विरुद्धस्यासर्वज्ञत्वस्य क्वचित्कदाचिद्विधानात्सर्वत्र सर्वदा वा। तत्राद्यपक्षे न सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञाभावः सिध्येत्, यत्रैव हि तद्विधानं तत्रैव तद्भावो नान्यत्र । न हि कचित्कवाचिदग्नेविधाने ज्ञानावरण आदि प्रतिबन्धक कर्मोंका समूल नाश । सो इन कर्मोंका समूल नाश तो हो ही सकता है। जब हम इन कर्मोंके नाशका चढ़ाव-उतार देखते हैं तथा ये कर्म जब आये हैं, आगन्तुक हैं; स्वाभाविक नहीं हैं। तब इनका प्रतिपक्षीके मिलनेपर अत्यन्त नाश तो उसी तरह हो जायेगा जैसे कि गरमीके आनेसे ठण्डकका । 'कर्म अत्यन्त नष्ट होते हैं' इसकी सिद्धि आगे की जायेगी। ६६१. सर्वज्ञके कार्यकी अनुपलब्धिसे उसका अभाव करना भी केवल मनसूबे बांधना ही है; क्योंकि सर्वज्ञका सबसे बड़ा तथा ठोस कार्य है उसके द्वारा रचा गया अविसंवादी आगम । .६६२. सर्वज्ञके व्यापक धर्मकी अनुपलब्धि भी नहीं कही जा सकती; क्योंकि सर्वज्ञका व्यापक धर्म है समस्त पदार्थोंका यथार्थ साक्षात्कार करना। सो यह निम्नलिखित अनुमानके द्वारा प्रसिद्ध है ही। कोई व्यक्ति सकल पदार्थोंका यथावत् साक्षात्कार करता है, क्योंकि उसका पदार्थोंके जाननेका स्वभाव है तथा उसके ज्ञानके प्रतिबन्धक कर्म नष्ट हो गये हैं, जिसका जिस पदार्थको जाननेका स्वभाव है तथा यदि वह तद्विषयक प्रतिबन्धकोंसे शून्य है तो वह अवश्य हो उस पदार्थको जानता है । जैसे आंखका रूपको देखनेका स्वभाव है और यदि उसमें कोई तिमिर आदि रोग न हों तथा अन्धकार आदि रुकावटें न हों तो वह अवश्य ही रूपको देखती है । इस अनुमानसे सर्वज्ञके सर्वसाक्षात्कारित्व रूप व्यापक धर्मकी सिद्धि होती है अतः व्यापक धर्मकी अनुपलब्धिसे सर्वज्ञका अभाव नहीं किया जा सकता। ६३. विरुद्ध विधि अर्थात् सर्वज्ञसे विरुद्ध असर्वज्ञकी विधि भी सर्वज्ञका अभाव नहीं कर सकती; क्योंकि उस समय सर्वज्ञको साक्षात् विरोधी असर्वज्ञका विधान करके सर्वज्ञका अभाव किया जायेगा, अथवा सर्वज्ञको परम्परासे विरोध करनेवाले अन्य किसी पदार्थका विधान करके यदि सर्वज्ञका सीधा विरोध करनेवाले असर्वज्ञका विधान करके उसकी सत्ताका लोप किया जाता है। तब यह प्रश्न होगा कि ऐसे असर्वज्ञका किसी खास देश या विशेष समयमें विधान किया जायेगा या तीनों काल और तीनों लोकोंमें ? यदि असर्वज्ञका किसी देश विशेष या किसी खास १. "सर्वसंबन्धिसर्वज्ञज्ञापकानुपलम्भनम् । न चक्षुरादिभिर्वेद्यमत्यक्षत्वाददृष्टवत ॥"त. इको. पृ. १४ । २. नापि तत्कारणा म.२। ३.-णज्ञाना-म. २। ४. अतस्तत्सा-म. २। ५. "तथाहि-कश्चिदात्मा सकलार्थसाक्षात्कारी, तद्ग्रहणस्वभावकत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात् ।" -न्याय कुमु. ९१। प्रमेयक. २५५। स्या. रना. पृ. २७०। प्रमेयरत्नमा. २०१२। ६. साधयति म. ', प. १, २, आ., क.। "नापि विरुद्धविधिः यतः साक्षात, परम्परया वा विरुद्धस्य विधिः सर्वज्ञाभावं प्रसाधयेत् ।" -न्यायकुमु. प्र. ९२। ७. सर्वज्ञेन म. ।। ८.-स्यासर्वज्ञस्य-म, २। ९. सदा वा भ. २ । १०. तत्रादिपक्षे म. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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