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षड्दर्शनसमुच्चय है कि जिस प्रतिसे यह प्रशस्ति मुद्रित है वह प्रति वि. १४३६ में लिखी गयी प्रतिको आदर्शभूत मानकर प्रतिलिपिरूप है।
गुणरत्नको आचार्यपद वि.१४४२ में मिला इस तथ्यके आधारपर उनके जीवनका प्रारम्भिक समय और उनकी अन्तिम अवधिका विचार किया जाय तो उल्लेखोंके अनुसार वि. १४५७ में कल्पान्तर्वाच्य, वि. १४५९ में कर्मग्रन्थ अवचूरि और वि. १४६६ में क्रियारत्नसमुच्चयकी रचना की और १४६९ में बीकानेर में प्रतिष्ठा की। इससे माना जा सकता है कि वे प्रायः वि. १४०० से १४७५ तक जीवित रहे होंगे। अतएव उनका समय प्रायः ई. १३४३ से ई.१४१८ माना जा सकता है। यह समय इस आधारपर स्थिर किया जा सकता है कि उनको जब आचार्यपद मिला तब वे ४२ वर्षकी उम्र के होंगे। यदि इस आयुमें हानि-वृद्धि किसी प्रमाणसे की जा सके तो उनका समय भी तदनुसार थोड़ा इधर-उधर हो सकता है।
त्लके ग्रन्थ आ. गुणरत्नने ये ग्रन्थ लिखे हैं
(१) कल्पान्तर्वाच्य-आ. गुणरत्नने इसकी रचना सं. १४५७ में की है। अभी तक अमुद्रित है। इसमें प्रारम्भमें पर्युषणपर्वकी महिमाका निरूपण है। उसके बाद कल्पसूत्रके श्रवणको महिमाका वर्णन है तथा कल्पश्रवणकी विधि तदनन्तर बतायो गयी है। इस प्रसंगमें कथाएं भी दी गयी हैं। तदनन्तर कल्पसूत्रके जिनचरित आदि विषयोंकी चर्चा की गयी है।
(२) क्रियारत्नसमुच्चय-इस ग्रन्थको आचार्य हेमचन्द्रके शब्दानुशासनके आधारपर धातुओंका संकलन करके आचार्य गुणरत्नने निर्मित किया है। प्रशस्तिमें निर्दिष्ट है कि यह ग्रन्थ वि. १४६६ (ई. १४०९) में समाप्त किया गया था। इसमें सभी कालके धातुओं के रूप किस प्रकार होते हैं यह प्रयोगोंके उदाहरणोंके साथ दिखाया गया है। सर्वप्रथम कालोंके विभागका स्पष्टीकरण करके स्वादिगणके क्रमसे गणोंके धातुओंके रूपोंको निर्दिष्ट किया गया है। तदनन्तर सौत्रधातु और नामधातुके रूप दिये गये हैं। अन्त में प्रशस्तिमें गुरुपर्वक्रममें सुधर्मासे लेकर अपने गुरु आचार्य देवसुन्दरका काव्यमय परिचय दिया है। यह ग्रन्थ यशोविजय जैनग्रन्थमाला, काशी के दसवें पुष्पके रूपमें वीर सं. २४३४ (ई. १९०७) में मुद्रित हुआ है ।
(३) चतुःशरणादि प्रकीर्णकावचूरि-चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, संस्तारक और भक्तपरीक्षा-इन चार प्रकीर्णकोंकी अवचूरि जिसे विषमपदविवरण भी कहा गया है, आचार्य गुणरत्नने लिखी है । प्रतियों के विषय में जिनरत्नकोषमें निर्देश है। किन्तु अभी तक यह अमुद्रित है।
. (४) कर्मग्रन्थ-अवचूरि-देवेन्द्रसूरिकृत कर्मविपाक, कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व, षडशीति और शतक-ये पाँच और चन्द्रषिमहत्तरकृत सप्ततिका-इन छह कर्मग्रन्योंकी ।अवचूरि वि. १४५९ में आचार्य गुणरत्नने लिखी है। प्रशस्तिके लिए देखो, ला. द. विद्यामन्दिरगत पू. पुण्यविजयजीके संग्रहगत नं. ४५२३ की प्रति । अन्य प्रतियोंमें भी यह रचनाकाल उपलब्ध होता है। देखें, जिनरत्नकोषगत उल्लेख । अभी यह अमुद्रित है।
(५) क्षेत्रसमास-अवचूणि आचार्य सोमतिलकसूरिके पूर्व भी क्षेत्रसमास नामक प्रकरण जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणादिने लिखे थे। अतएव आचार्य सोमतिलकके क्षेत्रसमासको आचार्य गुणरत्नने नव्यक्षेत्रसमासकी संज्ञा दी है और उसकी संक्षिप्त टीका अवचूणिके नामसे लिखी है। इसकी कई प्रतियां मिलती है (जिनरत्नकोष, पृष्ठ ९९ देखें) किन्तु अभी तक यह अप्रकाशित है।
ला. द. विद्यामन्दिरके पू. मुनिराज श्री पुण्यविजयजीके संग्रहकी नं. ३६६८ की प्रतिके अनुसार इसका प्रारम्भ और प्रशस्तिकी कारिकाएँ यहां दी जाती है। प्रारम्भ है
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