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प्रस्तावना
मुनिसुन्दर सूरिने वि. १४६६ में गुर्वावली ( यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, वीर सं. २४३७ ) को समाप्त किया है (श्लो. ४९३)-अतएव गुणरत्नके वे समकालीन कहे जा सकते हैं। क्योंकि गुणरत्नका आचार्यपद महोत्सव वि. १४२ में हुआ और वि. १४६६ में ही उन्होंने क्रियारत्नसमुच्चय लिखा है। अतएव गुर्वावलीमें मुनिसुन्दर ने गुणरत्नके विषयमें जो प्रशस्ति लिखी है वह समकालीन होनेसे उसका महत्त्व है-गुर्वावली श्लोक ३७७-३९०। मुनिसुन्दरने गुणरत्नकी प्रशंसामें जो कुछ लिखा है उससे ज्ञात होता है कि वे वादविद्यामें कुशल थे और वादमें उन्होंने अनेक प्रतिवादियोंको जीत लिया था उससे उनकी कोति फैली हुई थी। अन्यके लिए कठिन ग्रन्थों में उनकी बुद्धिका सहज प्रवेश था। उनका चरित्र निर्मल था। उनकी प्रतिज्ञा थी कि किसीके प्रति बाधक नहीं बनना या बैठते समय दीवालका सहारा ( अवष्टम्भ ) नहीं लेना; किसीके प्रति रोष नहीं करना और विकथा नहीं करनी। सर्वविद्यामें कुशल थे। उनसे थोड़ा भी पढ़कर शिष्य अन्योंको वशमें ले सकते थे। व्याकरण, साहित्य, आगम, ज्योतिष और तर्क में तथा वादविद्यामें निपुण थे। स्वदर्शन हो या परदर्शन उनकी प्रतिमा सर्वत्र व्याप्त थी। उनमें ज्ञानके लिए उद्यम, नित्य अप्रमाद और स्मरणशक्ति अतुलनीय थे। उन्होंने तत्त्वार्थका दर्शन करानेवाली ज्ञाननेत्रके अंजनके लिए शलाकारूप षड्दर्शनसमुच्चयकी टीकाको रचना की। व्याकरणसमुद्रका अवगाहन करके क्रियारत्नसमुच्चयका विद्वज्जनोंको उपहार दिया। वे सरस्वतीके परमोपासक थे - इत्यादि ।
. मुनिसुन्दरको गुर्वावलीमें यह प्रशंसा अकारण नहीं है यह आ. गुणरत्नके ग्रन्थोंके अभ्यासी सहज ही में स्वीकार करेंगे। उनके व्याकरणके ज्ञानका प्रमाण क्रियारत्नसमुच्चय ग्रन्य है, दार्शनिक विद्याके विषयमें प्रस्तुत षड्दर्शनसमुच्चयकी टीका मौजूद है। अनेक अवणि उनके आगमज्ञानकी साक्षी देती हैं। वादविद्यामें कुशल थे इसका प्रमाण अंचलमतनिराकरण और प्रस्तुत टीका देते हैं। अतएव मुनिसुन्दरने कोई गलत बात कही हो ऐसा नहीं लगता।
आचार्य गुणरत्नका विहारक्षेत्र गुजरात-राजस्थान रहा है। राजस्थानमें तो उन्होंने जैनप्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा भी करवायी है ऐसा 'बीकानेर जैन लेखसंग्रह' से पता चलता है। बीकानेरके चिन्तामणिजीके मन्दिरमें दो प्रतिमाओंपर लेख हैं (नं.६४५ तथा ६५१ ) जिनसे पता चलता है कि वि. १४६९ में श्री आदिनाथके बिम्बोंकी प्रतिष्ठा आ. गुणरत्नने की थी। उन दोनों बिम्बोंको प्राग्वाट ज्ञातिके श्रेष्ठि ताल्हाके श्रेयार्थ उनके पुत्रादि परिवारने बनवाया था। समय
आचार्य गुणरत्नके जन्मके विषयमें गुर्वावलीमें उल्लेख नहीं है किन्तु उनके आचार्यपदका महोत्सव कुलमण्डनके सूरिपदके महोत्सव के प्रसंगमें लखमसिंहने किया ऐसा स्पष्ट उल्लेख गुर्वावली में ( ३७४ ) है।
और गुर्वावली में ही कुलमण्डनको वि. १४४२ में सूरिपद मिला ऐसा उल्लेख है-( श्लोक ३६८ )। वि. १४४२ में गुणरत्नके सूरिपदका महोत्सव हुआ ऐसा उल्लेख पञ्चाशक वृत्तिको वि. १४४२ में ही को गयी प्रतिलिपिकी प्रशस्तिमें है-जैनपुस्तकप्रशस्ति, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ई. १९४३, पृ. ४३ । इससे सिद्ध होता है उनके सूरिपदका महोत्सव वि. १४४२ (ई. १३८५ ) में हुआ । उक्त जैनपुस्तक प्रशस्ति संग्रहमें उद्धृत एक प्रशस्तिमें (पृ. ४०) उनको देवसुन्दरसूरिके ज्ञानसागर आदि सूरिके साथ सूरिरूपमें बताया गया है। यह प्रशस्ति जैसा कि सम्पादक श्री आचार्य जिनविजयजीने वि. १४३६ में लिखित माना है तदनुसार यह मानना होगा कि गुरुने उनको वि. १४३६ के पूर्व सूरिपद दिया था किन्तु सूरिपदका महोत्सव कुलमण्डनके सूरिपदके महोत्सवके साथ वि. १४४२ में हुआ। अथवा ऐसा भी माना जा सकता
१. गुणरत्नके विषयमें इतः पूर्व जो लिखा गया है उसके लिए देखो, जैनपररंपरानो इतिहास भाग ३, पृ. ४३५; जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ. ४६२-४६३ ।
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