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षड्दर्शनसमुच्चय षट्दर्शनसमुच्चयकी सोमतिलककृत 'वृत्तिके अन्तमें 'लघुषड्दर्शनसमुच्चय' के नामसे अज्ञातकर्तृक एक कृति मुद्रित है उसके प्रारम्भमें
जैन नैयायिकं बौद्ध काणादं जैमनीयकम् । सांख्यं षड्दर्शनीयं च नास्तिकीयं तु सप्तमम् ॥ यह कारिका देकर क्रमशः उक्त दर्शनोंका परिचय अतिसंक्षेपमें दिया गया है। अन्तमें अन्य दर्शनोंको दुर्नयकोटिमें रखकर जैनदर्शनको 'प्रमाण' बताया गया है। इससे सिद्ध है कि इसका कर्ता कोई जैन लेखक है।। आचार्य हरिभद्र
आचार्य हरिभद्र (वि. ७५०-८२७) के जीवन और लेखन के विषयमें पर्याप्त लिखा गया है । अतएव यहाँ उस विषयमें पुनरावृत्ति अनावश्यक है। यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जिज्ञासु पूज्य पं. श्री सुखलालजी लिखित 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' देख लें।
आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थोंकी सूचीको देखनेसे पता चलता है कि उन्होंने जैनागमकी अनेक टीकाएं लिखीं, जैनागमोंके विविध विषयोंको लेकर अनेक प्रकरण ग्रन्थ लिखे, कथाग्रन्थ लिखे, दर्शन और योगके भी अनेक ग्रन्थ लिखे, ज्योतिष और स्तुतिग्रन्थ भी लिखे । संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंमें उन्होंने लिखा है। यह कहा जा सकता है कि अपने कालमें जैनवाङ्मयके विविध क्षेत्रोंमें उन्होंने प्रदान ही नहीं किया किन्तु तत्कालकी जो भारतीय जैनेतर विद्यासमृद्धि थी उसमें-से भ्रमरकी तरह मधु संचय करके जैनसाहित्यको श्रीवृद्धि की। आचार और दर्शनके जो मन्तव्य जैनधर्मके अनुकूल दिखाई पड़े उन्हें अपने ग्रन्थों में निबद्ध कर दिया।
उनके दो रूप दिखाई पड़ते हैं-एक वह रूप जो धूर्ताख्यान जैसे अन्योंके लेखकके रूपमें तथा आगमोंकी टीकाके लेखकके रूपमें है। इसमें एक कट्टर साम्प्रदायिक लेखकके रूपमें आचार्य हरिभद्र उपस्थित होते हैं। उनका दूसरा रूप वह है जो शास्त्रवासिमच्चय आदि दार्शनिक ग्रन्थों में और उनके योगवि अनेक ग्रन्थोंमें दिखाई पड़ता है। इनमें विरोधीके साथ समाधानकर्ताके रूपमें तथा विरोधीकी भी ग्राह्य बातोंके स्वीकर्ताके रूपमें आचार्य हरिभद्र उपस्थित होते हैं। उनका यह दूसरा रूप सम्भवतः विद्यापरिपाकका फल है। अतएव वह उनके जीवनकालकी उत्तरावधिमें ही सम्भव है। जैनधर्मके बाह्य आचार-विचारके समर्थकके रूपमें उनका प्राथमिक रूप है जब कि तात्त्विकधर्मके समर्थकरूपमें उनका परिनिष्पन्नरूप है। अन्तर्मुख किसी भी व्यक्तिके जीवनका ऐसा होना स्वाभाविक है। सम्भव है कि उन्होंने केवल योगके ग्रन्थ ही नहीं लिखे, कुछ योगसाधना भी की होगी। उसीका परिणाम है कि जीवन में कदर धार्मिकताका स्थान उदारताने लिया है। आचार्य गुणरत्नसूरि
___ गुणरत्न नामके अनेक आचार्य हुए हैं किन्तु प्रस्तुतमें षड्दर्शनसमुच्चयकी टीकाके कर्ता गुणरत्न वे है जो आ. देवसुन्दरसूरिके शिष्यरूपसे अपनेको प्रस्तुत टीकाके अधिकारोंके अन्तमें दी गयी प्रशस्तिमें प्रख्यात करते हैं -पृ. ७५, १३९, १५९, ४०५, ४२९ और ४६२ । देवसुन्दरका जन्म वि. १३९६, वि. १४०४ में दीक्षा और वि. १४२० में आचार्यपद है-मुनिसुन्दरकृत गुर्वावली श्लो. ३०१ । गुर्वावलीमें देवसुन्दरकी प्रशंसाके अनेक पद्य हैं। इससे पता चलता है कि वे अपने कालके प्रभावक आचार्य है। देवसुन्दर सूरिके कई शिष्य थे जो सू रिपदसे विभूषित थे, उनमें गुणरत्न एक है (-गुर्वावली श्लोक ३१८, ३२७, ३६४, ३७७, ३९१ इत्यादि)।
१. मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर, उभोई-द्वारा प्रकाशित। २. प्रकाशक, बम्बई विश्वविद्यालय, १९६१ (गुजराती), और 'समदशी आचार्य हरिभद्र', प्रकाशक, राजस्थान प्राच्यप्रतिष्ठान, जोधपुर, ई. १९६३ (हिन्दी)। ३. देवसुन्दर सूरिके लिए देखो, सोमसौभाग्य सर्ग ५, तथा मुनिसुन्दरकृत गुर्वावली ३००-१२५ ।
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