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प्रस्तावना
राजशेखरका 'षड्दर्शनसमुच्चय' आचार्य हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चयका अनुकरण होते हुए भी सामग्रीको दृष्टिसे विस्तृत है। इसमें तत्तत् दर्शनों के आचारों और वेशभूषाका भी निरूपण है। इस ग्रन्थमें दर्शनोंका परिचय इस क्रमसे है
१ जैन, २ सांख्य, ३ जैमिनीय, ४ योग, ५ वैशेषिक और ६ सौगत । योगदर्शनका परिचय, अष्टांगयोग, जो कि सर्वदर्शन साधारण आचार है, उसका परिचय देकर सम्पन्न किया है। तथा उक्त र जीवको मानते हैं जब कि नास्तिक उसे भी नहीं मानते यह कहकर चार्वाकोंकी दलीलोंका संग्रह करके उस दर्शनका भी परिचय अन्तमें दे दिया है। ये राजशेखर वि. १४०५ में विद्यमान थे ऐसा उनके द्वारा रचित प्रबन्ध कोशकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है। यह षड्दर्शनसमुच्चय यशोविजय जैन ग्रन्थमालामें वाराणसीसे वीर सं. २४३८ में प्रकाशित है।
आचार्य मेरुतुंगकृत (ई. १४वींका उत्तरार्ध) 'षड्दर्शननिर्णय' नामक ग्रन्थकी हस्तप्रति नं. १६६६ बाम्बे ब्रांच, रॉयल एसियाटिक सोसायटीम विद्यमान है। उसकी फोटो कापी लालभाई द. विद्यामन्दिर, अहमदाबादमें है। उसकी प्रतिलिपि डॉ. नगीन शाहने की है। उसे पढ़नेसे ज्ञात होता है कि उसमें आचार्य मेहतुंगने क्रमशः बौद्ध, मीमांसा ( वेदान्तके साथ),. सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक और जैनदर्शन-इन छह दर्शनों-सम्बन्धी मीमांसा की है। इस ग्रन्थमें तत्तत् दर्शन-सम्बन्धी खासकर देव, गुरु और धर्मके स्वरूपका निरूपण करके जैनमतानुसार उसकी समीक्षा की गयी है। और अन्तमें जैनसम्मत देव-गुरु-धर्मका स्वरूप निरूपित करके वैसा ही स्वरूप महाभारत, पुराण, स्मृति आदिसे भी समर्थित होता है ऐसा दिखानेका प्रयत्न किया गया है । आ. मेरुतुंगकी यह रचना वि. १४४४ और वि. १४४९ के बीच हुई है ऐसा श्री देसाई कृत 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' (पृ. ४४२ ) से प्रतीत होता है।
___ मधुसूदन सरस्वती ( ई. १५४०-१६४७ ) द्वारा रचित 'प्रस्थानभेद' भी सर्वदर्शनसंग्राहक ग्रन्थ कहा जा सकता है। उसमें सभी प्रधान शास्त्रोंका परिगणन किया है। तदनुसार वेदके उपांगोंमें पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्मशास्त्रका संग्रह किया गया है। और उनके मतानुसार वैशेषिक दर्शनका न्यायमें, वेदान्तका मीमांसामें तथा सांख्य और पातंजल, पाशुपत और वैष्णव आदिका धर्मशास्त्रमें समावेश है । और इन सभीको उन्होंने 'आस्तिक' माना है।
मधुसूदन सरस्वतीने नास्तिकोंके भी छह प्रस्थानोंका उल्लेख किया है वे ये हैं-माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक और वैभाषिक-ये चार सौगत प्रस्थान तथा चार्वाक और दिगम्बर । मधुसूदनका कहना है कि शास्त्रोंमें इन प्रस्थानोंका समावेश उचित नहीं क्योंकि वेदबाह्य होनेसे पुरुषार्थमें परम्परासे भी म्लेच्छ आदि प्रस्थानोंकी तरह उनका कोई उपयोग नहीं है । सारांश यह है कि उनके मतमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व और उत्तर मीमांसा-इन छह प्रसिद्ध वैदिक दर्शनोंके अलावा पाशुपत और वैष्णव-पाँच रात्रोंका भी वैदिक आस्तिक दर्शनोंमें समावेश है। और नास्तिक अवैदिक दर्शनोंमें भी छह दर्शन उनको अभिप्रेत हैं।
वैदिकदर्शनोंके पारस्परिक विरोधका समाधान उन्होंने यह कहकर किया है कि ये सभी मुनि भ्रान्त तो हो नहीं सकते क्योंकि वे सर्वज्ञ थे। किन्तु बाह्य विषय में लगे हए लोगोंको परमपुरुषार्थमें प्रविष्ट होना कठिन होता है अतएव नास्तिकोंका निराकरण करनेके लिए इन मनियोंने प्रकारभेद किये हैं। लोगोंने इन मुनियोंका आशय समझा नहीं और कल्पना करने लगे कि वेदसे विरोधी अर्थमें भी इन मुनियोंका तात्पर्य है और उसीका अनुसरण करने लगे हैं ।
१. प्रस्थानभेद (पुस्तकालय स. स. मण्डल, बरोडा, ई. १९३५ ) पृ. १ । २. वही, पृ. १ । ३. पृ. ५। ४. पृ. ५ । ५. प्रस्थानभेद, पृ. ५७ ।
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