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षड्दर्शनसमुच्चय
दर्शन ( वैशेषिक ), ११. अक्षपाददर्शन ( नैयायिक ), १२. जैमिनिदर्शन ( मीमांसा), १३. पाणिनिदर्शन, १४. सांख्यदर्शन, १५. पातंजलदर्शन, १६. शांकरदर्शन ( वेदान्तशास्त्र ) ।
'प्रस्थान भेद' के लेखकने जिस उदारताका परिचय दिया है वह भी इस सर्वदर्शनसंग्रह में नहीं । वह तो अद्वैतको ही अन्तिम सत्य मानता है । नयचक्र में सर्वदर्शनोंके समूहको अनेकान्तवाद कहा है और प्रत्येक दर्शनको एकान्त कहा है। उसके अनुसार अद्वैत मत भी एक एकान्त ही ठहरता है अन्तिम सत्य नहीं । जब कि 'सर्वदर्शनसंग्रह के मतसे अद्वैत हो अन्तिम सत्य है । बाकी सब मिथ्या है। वस्तुतः नयचक्र और सर्वदर्शनसंग्रह इन दोनोंका एक ही ध्येय है और वह यह कि अपने-अपने दर्शनको सर्वोपरि सिद्ध करना । माधवसरस्वती (? ई. १३५०) ने 'सर्वदर्शन कौमुदी' नामक ग्रन्थ लिखा है जो त्रिवेन्द्रम् संस्कृत ग्रन्थमालामैं ई. १९३८ में प्रकाशित है। इस ग्रन्थकारने भी वैदिक-अवैदिक - इस प्रकारका दर्शन विभाग स्थिर किया है । वेदको प्रमाण माननेवालोंको वह शिष्ट मानता है और वेदके प्रमाणको स्वीकार नहीं करनेवाले बौद्धको अशिष्ट । माधव सरस्वतीने वैदिक और अवैदिक ऐसे दो भेद दर्शनोंके किये हैं । वैदिक दर्शनों में इनके अनुसार तर्क, तन्त्र और सांख्य ये तीन दर्शन हैं। तर्कके दो भेद हैं-वैशेषिक और नैयायिक | तन्त्रका विभाजन इस प्रकार है
शब्दमीमांसा (व्याकरण)
तन्त्र
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कर्मकाण्डविचार = पूर्वमीमांसा
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अर्थमीमांसा
भाट्ट
प्राभाकर
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सांख्यदर्शनके दो भेदोंका निर्देश है— सेश्वरसांख्य योगदर्शन और निरीश्वरसांख्य = प्रकृतिपुरुष के भेदक प्रतिपादक । इस प्रकार वैदिक दर्शनोंके छह भेद हैं- योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, नैयायिक, और वैशेषिक ।
ज्ञानकाण्डविचार = उत्तरमीमांसा
अवैदिक दर्शन के तीन भेद हैं- बौद्ध, चार्वाक और आर्हत । तथा बौद्धदर्शनके चार भेद हैं- माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिकरे ।
इस ग्रन्थकी विशेषता यह है कि वह इस क्रमसे दर्शनोंका निरूपण करता है - वैशेषिकदर्शनका सर्वप्रथम निरूपण है । किन्तु वैशिषकों के ही द्वारा विपर्ययके निरूपण प्रसंग में ख्यातिवादकी चर्चा की गयी हैउसी में सदसत्ख्यातिको माननेवाले जैनोंका दर्शन पूर्वपक्षमें निरूपित है । और वैशेषिकों द्वारा विपरीतख्याति - की स्थापनाके लिए उसका निराकरण किया गया है । अतएव जैनदर्शनका निरूपण पृथक् करनेकी आवश्यकता लेखकने मानी नहीं है ।
वैशेषिकके अनन्तर नैयायिक दर्शनका निरूपण है ( पू. ६३ ) और क्रमशः मीमांसा, सांख्य और योगदर्शनका निरूपण है ।
१. वेदप्रामाण्याभ्युपगन्ता शिष्टः । तदनभ्युपगन्ता बौद्धोऽशिष्टः ।-पू. ३ । २. सर्वदर्शनकौमुदी, पृ. ४ । ३. सर्वदर्शनकौमुदी, पृ. ३४ और पृ. १०८ । लेखकने जैनदर्शनका पूर्वपक्ष जो उपस्थित किया है वह अन्त नहीं है ।
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