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________________ प्रस्तावना १७ वायडगच्छके जीवदेवसूरिके शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि (वि. १२६५ ) ने "विवेक विलास' की रचना की है (प्रकाशक, सरस्वती ग्रन्थमाला कार्यालय, आगरा, वि. १९७६ ) उसके अष्टम उल्लासमें 'षड्दर्शनविचार' नामका प्रकरण है-उसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव (नैयायिक और वैशेषिक ) और नास्तिक-इन छहों दर्शनोंका संक्षेपमें परिचय दिया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थमें शैवमें न्याय-वैशेषिकका समावेश है-यह ध्यान देने योग्य है। यह भी आचार्य हरिभद्रके समान केवल परिचयात्मक प्रकरण है। अन्तमें जो उपदेश दिया है वह ध्यान देने योग्य है सन्तु शास्त्राणि सर्वाणि सरहस्यानि दूरतः। एकमप्यक्षरं सम्यक् शिक्षितं निष्फलं नहि ॥ ८.३११ यह प्रकरण ६६ श्लोक प्रमाण है। ___ आचार्य शंकरकृत माना जानेवाला 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' अथवा 'सर्वदर्शनसिद्धान्तसंग्रह' मद्रास सरकारके प्रेससे ई. १९०९ में श्री रंगाचार्य द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ है। श्री पं. सुखलालजीको यह प्रसिद्ध अद्वैत वेदान्तके आद्यशंकराचार्यकी कृति होनेमें सन्देह है (समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ. ४२ )। किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह कृति सर्वदर्शनसंग्रह ( माधवाचार्य ) से प्राचीन है। इस ग्रन्थकारके मतसे भी वैदिक और अवैदिक ऐसा दर्शन विभाग है। वैदिकोंमें इनके मतसे जैन, बौद्ध और-नहस्पतिके मतोंका समावेश नहीं है। इस ग्रन्थमें भी माधवाचार्यके सर्वदर्शनसंग्रहकी तरह पूर्व-पूर्व दर्शनका उत्तर-उत्तर दर्शनके द्वारा निराकरण है। दर्शनोंका इस प्रकार निराकरण करके अन्तमें अद्वैत वेदान्तकी प्रतिष्ठा की गयी है । दर्शनोंका क्रम इस ग्रन्थमें इस प्रकार है १. लोकायतिकपक्ष, २. आर्हतपक्ष, ३. माध्यमिक, ४. योगाचार, ५. सौत्रान्तिक, ६. वैभाषिक, ७. वैशेषिक, ८. नैयायिक, ९. प्रभाकर, १०. भट्टाचार्य (कुमारांश = कुमारिल ), ११. सांख्य, १२. पतञ्जलि, १३. वेदव्यास, १४. वेदान्त । इन दर्शनोंमें-से वेदव्यासके दर्शनके नामसे जो पक्ष उपस्थित किया गया है वह महाभारतका दर्शन है। जैनदर्शनको आहतपक्षमें उपस्थित किया गया है किन्तु लेखकने भ्रमपूर्ण बातोंका उल्लेख किया है। पता नहीं उनके समक्ष जैनदर्शनका कौन-सा ग्रन्थ था । लेखक जैनों के मात्र दिगम्बर सम्प्रदायसे परिचित है। बौद्धोंके चार पक्षोंको अधिकारी भेदसे स्वीकृत किया है। इतना हो नहीं किन्तु ब्रहस्पति, आर्हत और बौद्धोंके मतोंको भी अधिकारीके भेदसे भिन्न माने है। अन्य वैदिक मतोंके विषयमें भी इनका कहना है कि ये सभी वेदान्त शास्त्रके अर्थका प्रतिपादन करने के लिए ही तत्पर हैं वेदान्तशास्त्रसिद्धान्तः संक्षेपादथ कथ्यते । तदर्थप्रवणाः प्रायः सिद्धान्ताः परवादिनाम् ॥ १२.१ वेदबाह्य दर्शनोंको लेखक नास्तिकको उपाधि देता है "नास्तिकान् वेदबाह्यांस्तान् बौद्धलोकायताईतान् ॥ ५.१ सायण माधवाचार्य (ई. १३०० ) ने 'सर्वदर्शनसंग्रह' नामक ग्रन्थकी रचना की, उसकी पद्धति नयचक्रसे मिलती है। भेद यह है कि उन्होंने क्रमशः नयचक्रकी तरह, पूर्व-पूर्व दर्शनका उत्तर-उत्तर दर्शनसे खण्डन कराकर भी अन्तमें अद्वैतवेदान्तको प्रतिष्ठा की है। उस अन्तिम दर्शनका खण्डन किसी दर्शनसे नहीं कराया। जब कि नयचक्रगत अन्तिम मतका निराकरण सर्वप्रथम उपस्थित मतके द्वारा किया गया है और खण्डन-मण्डनका चक्र प्रवर्तित है। 'नयचक्र'के मतसे उपस्थित सभी मत सम्मिलित हों तो सम्यग्दर्शन या अनेकान्त होता है। जब कि 'सर्वदर्शनसंग्रह के मतसे अन्तिम अद्वैतदर्शन ही सम्यक है। सायण माधवाचार्यने क्रमशः जिन दर्शनोंका निराकरण किया है और अन्तमें अद्वैतवाद उपस्थित किया है-वे ये हैं-१. चार्वाकदर्शन, २. बौद्धदर्शन ( चारों भेद), ३. दिगम्बर (आईतदर्शन ), ४. रामानुज, ५. पूर्णप्रज्ञदर्शन, ६. नकुलीशपाशुपतदर्शन, ७. माहेश्वर ( शैवदर्शन ), ८. प्रत्यभिज्ञादर्शन, ९. रसेश्वरदर्शन, १०. औलूक्य १. इसी ग्रन्थमें-से सर्वदर्शनसंग्रहमें 'बौद्धदर्शन' के श्लोक उद्धृत है-सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. ४६ ( पूना )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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