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षड्दर्शनसमुच्चय दर्शनोंका संग्रह भी हो जाता है-ऐसा स्पष्टीकरण किया है ( का. १-३ ) और इन छह दर्शनोंको आस्तिकवादको संज्ञा दी है (का. ७७)।
यह भी निर्दिष्ट है कि कुछके मतसे नैयायिकसे वैशेषिकोंके मतको भिन्न माना नहीं जाता अतएव उनके मतानुसार पाँच आस्तिक दर्शन हुए ( का. ७८) और छह संख्याकी पूर्ति वे लोकायत दर्शनको जोड़कर करते हैं अतएव हम यहां लोकायत दर्शनका भी निरूपण करेंगे (का. ७९)। सारांश यह हुआ कि आचार्य हरिभद्रने छह आस्तिकदर्शन और एक नास्तिकदर्शन-लोकायत दर्शनका प्रस्तुत षड्दर्शनसमुच्चयमें
कया है। इससे स्पष्ट है कि हरिभद्रने वेदान्तदर्शन या उत्तरमीमांसाको इसमें स्थान दिया नहीं। का कारण यह हो सकता है कि उस कालमें अन्य दर्शनोंके समान वेदान्तने पथक दर्शनके रूपमें स्थान पाया नहीं था । वेदान्तदर्शनका दर्शनोंमें स्थान आचार्य शंकरके भाष्य और उसकी टीका भामतीके बाद जिस प्रकारसे प्रतिष्ठित हुआ सम्भवतः उसके पूर्व उतनी प्रतिष्ठा उसकी न भी हो। यह भी कारण हो सकता है कि गुजरात-राजस्थानमें उस काल तक वेदान्तकी उतनी प्रतिष्ठा न भी हो।
__ शास्त्रवार्तासमुच्चयकी रचना तत्त्वसंग्रहको समक्ष रखकर हुई है । दोनोंमें अपनी-अपनी दृष्टिसे ज्ञानदर्शनोंका निराकरण मुख्य है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में जिन दर्शनोंका निराकरण है उनका दर्शन विभाग क्रमसे नहीं किन्तु विषय-विभागको लेकर है । प्रसिद्ध दर्शनोंमें चार्वाकोंके भौतिकवादका सर्वप्रथम निराकरण किया गया है तदनन्तर स्वभाववाद आदिका, जिनकी कि नयचक्रमें प्रारम्भमें स्थापना और निराकरण है। तदनन्तर ईश्वरवाद जो न्याय-वैशेषिक सम्मत है, प्रकृति-पुरुषवाद ( सांख्यसम्मत), क्षणिकवाद (बौद्ध), विज्ञानाद्वैत ( योगाचार बौद्ध ), पुनः क्षणिकवाद (बौद्ध), और शून्यवाद (बौद्ध ) का निराकरण किया गया है। तदनन्तर नित्यानित्यवाद (जैन) की स्थापना करके अद्वैतवाद ( वेदान्त) का निराकरण किया है। तदनन्तर जैनोंके मुक्तिवादको स्थापना और सर्वज्ञताप्रतिषेधवाद (मीमांसक ) और शब्दार्थसम्बन्धप्रतिषेधवादका निराकरण है। इससे स्पष्ट है कि षड्दर्शनसमुच्चयमें जिस वेदान्तको स्थान नहीं मिला था उसे शास्त्रवार्तासमुच्चयमें (का. ५३४-५५२) मिला है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि आचार्य हरिभद्रने शान्तरक्षितका तत्त्व-संग्रह देखा और उसमें से प्रस्तुत वादके विषयमें उन्होंने जाना तब उस विषयको उनकी जिज्ञासा बलवती हुई और अन्य सामग्रीको भी उपलब्ध किया। तत्त्व-संग्रहकी टीकामें उसे औपनिषदिक अद्वतावलम्बी कहा गया है ( का. ३२८)। यह भी ध्यान देनेकी बात है कि तत्त्व-संग्रहमें भी आत्मपरीक्षा प्रकरणमें औपनिषदात्मपरीक्षा-यह एक अवान्तर प्रकरण है। वेदान्तके विषयमें उसमें कोई स्वतन्त्र 'परीक्षा' नहीं है। तत्त्व-संग्रहके पूर्व में भी समन्तभद्राचार्यको आप्तमीमांसामें अद्वैतवादका निराकरण था हो । वह भी आचार्य हरिभद्रने षड्दर्शनकी रचनाके पूर्व न देखा हो यह सम्भव नहीं लगता। अतएव पडदर्शनमें वेदान्तको स्वतन्त्र दर्शनका स्थान न देने में यही कारण हो सकता है कि उस दर्शनकी प्रमुख दर्शनके रूपमें प्रतिष्ठा जम पायी न थी। दर्शनसंग्राहक अन्य ग्रन्थ
प्रस्तुत षड्दर्शनसमुच्चयका अनुसरण करके अन्य जैनाचार्योंने दर्शनसंग्राहक ग्रन्थ लिखे। और उनमें भी उन्होंने आचार्य हरिभद्र जैसा ही दर्शनोंका परिचय मात्र देनेका उद्देश्य रखा है।
आचार्य हरिभद्रके बाद किसी जैन मुनिने "सर्वसिद्धान्तप्रवेशकः" ग्रन्थ लिखा था। उसकी तालपत्रमें वि. १२०१ में लिखी गयी प्रति उपलब्ध है-इससे पता चलता है कि वह राजशेखरसे भी पूर्वको रचना है । मुनिश्री जम्बूविजयजीने इस पुस्तिकाका सम्पादन किया है और जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बईसे वह ई. १९६४ में प्रकाशित है । इसमें क्रमशः नैयायिक, वैशेषिक, जैन, सांख्य, बौद्ध, मीमांसा और लोकायत दर्शनोंका परिचय है। आचार्य हरिभद्रका षड्दर्शन पद्योंमें है तब यह गद्यमें है। वही दर्शन इसमें भी हैं जो आचार्य हरिभद्रके षड्दर्शन में हैं । इस ग्रन्थमें दर्शनोंके प्रमाण और प्रमेयका परिचय कराना लेखकको अभिप्रेत है।
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