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________________ १९२ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ४६. ६५७तत्कथं तत्र तापोऽभ्यस्यमानः परा काष्ठां गच्छेत् । अत्यन्ततापे प्रत्युत पाथसः परिक्षयात् । ज्ञानं त जीवस्य सहजो धर्मः स्वाश्रये च विशेषमाधते। तेन तस्य निरन्तराभ्यासाहिताधिकोत्तरोत्तरविशेषाधानात् प्रकर्षपर्यन्तप्राप्ति युक्ता। एतेन 'लङ्घनाभ्यास' इत्यादि निरस्तं, लङ्घनस्यासहजधर्मस्वात, 'स्वाश्रये च विशेषानाधानात, प्रत्युत तेन सामर्थ्यपरिक्षयाविति । ६५७. तथा जलधिजलपलप्रमाणादयः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, प्रमेयत्वात, घटादिगतरूपादिविशेषवत् । न च प्रमेयत्वमसिद्धं, अभावप्रमाणस्य व्यभिचारप्रसक्तेः। तथाहि-प्रमाणपञ्चकातिक्रान्तस्य हि वस्तुनोऽभावप्रमाणविषयता भवताभ्युपगम्यते । यदि च जलधि जलपलप्रमाणादिषु समाधान-पदार्थके स्वाभाविक धर्मोंका ही अभ्यासके द्वारा पूर्ण विकास होता है। जो धर्म अन्य सहकारियोंको अपेक्षासे उत्पन्न होनेके कारण आगन्तुक हैं उनमें पूर्ण प्रकर्षका कोई खास नियम नहीं है । जलमें जो गरमी आती है वह उसका स्वाभाविक धर्म नहीं है किन्तु अग्निके सम्बन्धसे होनेवाला एक आगन्तुक-किरायेसे बसा हुआ बाहरी धर्म है। अतः वह बढ़ते-बढ़ते अपनी चरम सीमा-अग्नि रूप तक कैसे पहुंच सकता है ? बल्कि पानीको अधिक तपानेसे उसका समूल नाश हो जायेगा, वह सूखकर हवा हो जायेगा। सुवर्णको तपानेसे उसमें शुद्धि आती है यह शद्धि उसका स्वाभाविक धर्म है अतः उसकी चरम-सीमा सौटची सोने में प्रकट हो जाती है। इसी तरह ज्ञान जीवका निजी धर्म है अतः वह अपने आश्रय-आत्मामें विशेषता उत्पन्न करता है। वह सतत अभ्यास करनेसे तथा ध्यान आदि उपायों से क्रमिक विकास को पाता हुआ अन्तमें समस्त जगत्को साक्षात्कार करनेवाला हो जाता है । यही ज्ञानके विकासको चरम सीमा है । इस विवेकसे आपकी 'ऊंचा कूदनेका अभ्यास करनेपर भी कोई सौ योजन नहीं कूद सकता' इस शंकाका भी समाधान हो जाता है। ऊंचा कूदना, लांघना आत्माका या शरीरका स्वाभाविक धर्म नहीं है। ऊंचा कूदनेसे आत्मामें कोई विशेषता नहीं आतो, बल्कि यदि शक्तिसे बाहर कूदने की कोशिश की जाती है तो दम ही टूट जाता है और हाथ पैर टूटनेका भी पूरा-पूरा अन्देशा रहता है। ऊँचा कूदने में तो शरीरका हलकापन तथा फुरती विशेष रूपसे अपेक्षित है, अतः शरीरके हिसाबसे जो जितना कूद सकता है उसका उस हद तक कूद लेना ही उसका चरम विकास है। अधिक लांघनेसे शरीरका विकास न होकर उसका हास शुरू हो जाता है। अतः ज्ञानका चरम विकास मानना युक्तियुक्त है। ५७. तथा, 'समुद्रके जलकी बाजिबी तौल किसीको प्रत्यक्षसे प्रतिभासित होती है, क्योंकि वह प्रमेय है जैसे कि घट आदिमें रहनेवाले उसके रंग रूप आदि।' इस अनुमानसे भी सर्वज्ञकी सिद्धि होती है। समुद्र में कितने मन पानी है यह तोल प्रमेय-प्रमाणका विषय तो अवश्य है। आखिर उसके जल को एक एक रत्ती तक को बारीक तोल है तो अवश्य अतः 'जो चीज सत् होती है वह किसी न किसी प्रमाणका विषय भी होती ही है। इस नियमके अनुसार समुद्र की त में प्रमेयत्व हेतु असिद्ध नहीं है । मान लो कि, समुद्रके जलकी तौलको हम लोग प्रत्यक्ष अनुमान आदि पांच प्रमाणोंसे नहीं जान सकते तो कमसे कम अभाव प्रमाणके द्वारा उसका अभाव तो जान सकते हैं। तब भी समुद्रके जलको तौल अभाव प्रमाणका विषय होनेसे प्रमेय सिद्ध हो जाती है। यह तो आप स्वयं ही मानते हैं कि 'जो वस्तु सद्भावग्राही प्रत्यक्ष आदि पांच प्रमाणोंका विषय नहीं होती वह अभाव प्रमाणका विषय होती है । अतः यदि समुद्रके जल को तोल अन्ततोगत्वा अभाव १. स्वाश्रये विशेषानाधानाच्च प्र-भ. २ । २. "सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेय. त्वतोऽन्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥५॥"-आप्तमी. ५। "ततोऽन्तरिततत्त्वानि प्रत्यक्षाण्यर्हतोऽजसा । प्रमेयत्वाद्ययाऽस्मादक प्रत्यक्षार्थाः सुनिश्चिताः ॥८८॥" -आप्तप. इको. ८८। ३. -जलप्रलयप्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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