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- का० ४६. ६५६ ]
जनमतम् ।
तज्ज्ञानस्य भ्रान्तत्वप्रसङ्गः, अन्यथास्थितस्यार्थस्यान्यथाग्रहणात्, द्विचन्द्रज्ञानादिवदिति ॥ ५५. अत्र प्रतिविधीयते । तत्र यत्तावदुक्तम्- 'तद्ग्राहक प्रमाणाभावात्' इति साधनम् । तदसम्यक्; तत्साधकानामनुमानप्रमाणानां सद्भावात् । तथाहि ज्ञानतारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तं तरतमशब्दवाच्यत्वात् | परिमाणवदिति । नायमसिद्धो हेतुः, प्रतिप्राणिप्रज्ञामेधादिगुणपाटवरूपस्य ज्ञानस्य तारतम्येनोपलब्धेः । ततोऽवश्यमस्य सर्वान्तिमप्रकर्षेण भाव्यं यथा परिमाणस्याकाशे । स च -ज्ञानस्य सर्ववस्तुप्रकाशकत्वरूपो यत्र विश्रान्तः स भगवान् सर्वज्ञः ।
५६. ननु संताप्यमाने पाथस औष्ण्यतारतम्ये सत्यपि सर्वान्तिमवह्निरूपतापत्तिरूपप्रकर्षादर्शनाद्वयभिचार्य हेतुरिति चेत्; न; यतो 'यो द्रव्यस्य सहजो धर्मो न तु सहकारिसव्यपेक्षः, सहजोऽपि च यः स्वाश्रये विशेषमारभते, सोऽभ्यासक्रमेण प्रकर्षपर्यन्तमासादयति, यथा कलधौतस्थ पुटपाकप्रबन्धाहिताविशुद्धिः । न च पाथसस्तापः सहजो धर्मः, कि त्वग्न्यादिसहकारिसव्यपेक्षः । नहीं हुआ और इसीलिए उसका ज्ञान प्रत्यक्षकी श्रेणी में नहीं आ सकता । प्रत्यक्ष तो वर्तमानकी तरह साक्षात् स्पष्ट रूपसे जाननेवाला होता है । अतीतको अतीतरूपसे जाननेवाला ज्ञान तो स्मरण आदिकी तरह अस्पष्ट तथा अप्रत्यक्षात्मक होगा। यदि सर्वज्ञ अतीत आदि पदार्थोंको वर्तमानरूपसे जानता है; तब उसका ज्ञान अर्थोको विपरीत रूपमें अर्थात् जो वर्तमान नहीं हैं उन्हें वर्तमानरूप में, जानने के कारण मिथ्या हो जायेगा । जैसे एक चन्द्र में दो चन्द्रको देखनेवाला ज्ञान अन्यथाग्राही होनेसे भ्रान्त है उसी तरह सर्वज्ञका ज्ञान भी अतीत आदिको जो कि वर्तमानरूप नहीं हैं, वर्तमानरूप में जाननेके कारण झूठ ही ठहरेगा । इति ।
५५. जैन ( उत्तर पक्ष ) - जब सर्वज्ञको सिद्ध करनेवाले अनेक अनुमान मौजूद हैं तब ग्राहक प्रमाणोंका अभाव कहना किसी भी तरह उचित नहीं है । देखो, ज्ञानका तरतमभाव - क्रमिक विकास कहीं न कहीं अपनी आखिरी हदको प्राप्त हो जाता है क्योंकि वह क्रमिक विकास है । जैसे परिमाण - नाप परमाणुसे क्रमिक विकास करते-करते आकाशमें अपनी पूर्णदशा अर्थात् महापरिमाण अवस्था में पहुँच जाता है उसी प्रकार ज्ञानका क्रमिक विकास होते-होते कहीं-न-कहीं वह पूर्ण अवस्था में अवश्य ही पहुँचेगा। ज्ञानकी यह पूर्णावस्था ही सर्वज्ञता है । ज्ञानका क्रमिक विकास असिद्ध नहीं है, संसारमें हर एक प्राणीमें प्रज्ञा-नवीन पदार्थोंकी तर्कणा करनेवाली प्रतिभा तथा मेधा - धारणशक्ति आदि गुणोंका क्रमिक विकास बराबर देखते हैं। किसीकी प्रज्ञा आदिका कम विकास है तो दूसरा उससे बढ़ा-चढ़ा है। कोई एम. ए. है तो कोई डाक्टर है आदि । जब हम ज्ञानका इस तरह क्रमिक विकास प्रत्यक्षसे देख रहे हैं तब अवश्य ही ज्ञान बढ़तेबढ़ते किसी आत्मा में अपना चरम विकास कर लेगा जैसे कि परिमाण बढ़ते-बढ़ते आकाश में अपनी चरम सीमाको पहुँचकर महापरिमाण कहलाता है, उसी तरह ज्ञानकी चरम अवस्था सर्वज्ञता कही जाती है । ज्ञानका यह चरम विकास जिस आत्मामें हो गया है वही समस्त वस्तुओं का यथावत् प्रकाश करनेवाली आत्मा सर्वज्ञ है ।
$ ५६. शंका - जब चूल्हे पर पानी गरम करते हैं तब उसमें उष्णताकी तरतमता - क्रमविकास देखा जाता है, परन्तु पानीको कितनी ही देर तक क्यों न तपाया जाय उसमें उष्णताकी चरम सीमा -याने अग्निरूपता नहीं होती । पानीको कितना ही तपाइए वह त्रिकालमें भी अग्निरूप नहीं हो सकता । अतः आपका यह नियम 'जिनमें तरतमता होती उनका कहीं पूर्ण प्रकर्ष होता है' व्यभिचारी हो जाता है ।
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१. सन्तप्यमान - भ. २ । २. यो हि द्र-भ. २ । ३. " अभ्यासेन विशेषेऽपि लङ्घनोदकतापवत् । स्वभावातिक्रमो मा भूदिति चेदादितः स चेत् ॥ १२२ ॥ पुनर्यत्नमपेक्षेत यदि स्याच्चास्थिराश्रयः । विशेषो नैव वर्खेत स्वभावश्च न तादृशः ॥ १२३ ॥ |" - प्र. वा. १।१२२-३२३ | तत्त्वसं. पु. ४९२ ।
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