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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ४६. १४९
$ ४९ ततः सद्भूतार्थं प्रकाशकत्वाद्वीतराग एव सर्वज्ञो देवो देवत्वेनाभ्युपगमनार्हो नापरः कश्चिदिति स्थितम् ।
अत्र जल्पन्ति जेमिनीयाः । इह हि सर्वज्ञादिविशेषणविशिष्टो भवदभिमतः कश्वनापि देवो नास्ति, तद्ग्राहक प्रमाणाभावात् । तथाहि - न' तावत्प्रत्यक्षं तदुग्राहकम्; "संबद्धं वर्त्तमानं हि गृह्यते चक्षुरादिना " [ मी. इलो. प्रत्यक्ष सू. श्लो. ८४ ] इति वचनात् । न चानुमानम्; प्रत्यक्षदृष्ट एवार्थे तत्प्रवर्तनात् । न चागमः सर्वज्ञस्यासिद्धत्वेन तवागमस्यापि विवादास्पदत्वात् । न चोपमानम्, सर्वज्ञसदृशस्या परस्याभावात् । न चार्थापत्तिरपि सर्वज्ञसाधकस्यान्यथानुपपन्नार्थस्यादर्शनात् । ततः प्रमाणपञ्च काप्रवृत्तेरभावप्रमाणगोचर एव सर्वज्ञः । तदुक्तम्
"प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते ।
वस्त्वसत्त्वावबोधार्थं तत्राभावप्रमाणता || १|| " [ मी. इलो. अभाव. श्लो. १ ] इति ।
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$ ४९. मीमांसक - ( पूर्वपक्ष ) जैमिनि प्रणीत मीमांसा मतके अनुयायी मीमांसक कहते हैं। कि- आप देवको सृष्टिका कर्ता नहीं मानते यह बहुत सुन्दर है । परन्तु देवको सर्वज्ञ मानना नहीं जँचता । धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों में तो वेदका ही एकमात्र अधिकार है इन्हें कोई भी प्रत्यक्षसे नहीं जान सकता जिससे वह सर्वज्ञ बन सके । धर्म आदिके विषय में अनादि परम्परासे आया हुआ अपौरुषेय - जिसे किसी पुरुषने नहीं बनाया - स्वयंसिद्ध वेद ही स्वतः प्रमाण है । आपके सर्वज्ञको ग्रहण करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है । इन्द्रियोंसे सम्बन्ध रखनेवाला तथा वर्तमान पदार्थको जाननेवाला प्रत्यक्ष तो अतीन्द्रिय सर्वज्ञको जान ही नहीं सकता । "इन्द्रियोंसे जिनका सम्बन्ध है तथा जो पदार्थ वर्तमान हैं उन ही पदार्थोंमें चक्षुरादि इन्द्रियाँ प्रवृत्ति करती हैं" यह प्रसिद्ध ही है । अनुमानसे भी सर्वज्ञकी सिद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि प्रत्यक्षसे सिद्ध पदार्थ में ही अनुमानकी प्रवृत्ति होती है। जिन पदार्थोंके सम्बन्धको प्रत्यक्षसे जान सकें उन्हींका अनुमान किया जाता है । सर्वज्ञका तो कभी भी प्रत्यक्ष होता ही नहीं है अतः अनुमानको सामर्थ्य भी सर्वज्ञको जाननेकी नहीं है । जब सर्वज्ञ ही असिद्ध है तब उसके द्वारा कहा गया आगम प्रमाणभूत हो ही नहीं सकता, इसलिए आगम भी सर्वज्ञको सिद्ध नहीं कर सकता । सर्वज्ञके समान कोई दूसरा प्राणी संसार में दिखाई देता तो उसे देखकर सर्वज्ञका उपमान द्वारा ज्ञान किया जा सकत था, परन्तु सर्वज्ञ-सरीखा तो कोई दूसरा है ही नहीं । सर्वज्ञके विना नहीं होनेवाला कोई अविनाभावी अर्थं दिखाई देता तो उसके द्वारा अर्थापत्ति सर्वज्ञको जान पाती; पर ऐसा कोई अविनाभावी पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। इस प्रकार वस्तुका सद्भाव सिद्ध करनेवाले प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण तो सर्वज्ञकी सत्ताको सिद्ध नहीं कर सकते । अब छठवें अभाव प्रमाणका नम्बर है, सो वह तो सर्वज्ञकी सत्ताका समूल उच्छेद ही करनेवाला है। कहा भी है- "जब जिस वस्तुकी सत्ता सिद्ध करनेके लिए प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण असमर्थ हो जाते हैं तब उस वस्तुका अभाव अभावप्रमाणके
१. " सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः । निराकरणवच्छक्तया न चासीदिति कल्पना ॥११७॥” -मीमां. इलो. सू. २, पृ. ८१ । “ सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः । दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति लिङ्गं वा योऽनुमापयेत् ॥ ३१८६ ॥ " - तत्व सं. । २. " न चागमेन सर्वज्ञः तदीयेऽन्योन्यसंश्रयात् । नरान्तरप्रणीतस्य प्रामाण्यं गम्यते कथम् ॥ ११८ ॥ न चाप्येवं परो नित्यः शक्यो लब्धुमिहागमः । नित्यश्चेदर्थवादत्वं तत्परे स्यादनित्यता ॥ ११९ ॥” – मी. इको. प्रत्यक्षसू । ३. "सर्वज्ञसदृशः कश्चिद् यदि दृश्येत सम्प्रति । तदा गम्येत सर्वज्ञसद्भाव उपमाबलात् ॥ ३२१५ ॥ " - तत्वसं. पृ. ८३८ । ४. " उपदेशो बुद्धादेर्धर्माधर्मादिगोचरः । अन्यथा नोपपद्येत सार्वश्यं यदि नो भवेत् ॥३२१७॥ - प्रत्यक्षादी निषिद्धेऽपि सर्वज्ञप्रतिपादके । अर्थापत्त्यैव सर्वज्ञमित्थं यः प्रतिपद्यते ॥ ३२१८ || ” तसं. पृ. ८३८ ।
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