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________________ - का० ४६.६४८] जैनमतम् । दोस्तदधिक्षेपकृतोऽस्मदादीश्च किमर्थ सृजतीति नायं सर्वज्ञः। $ ४७. तथा बहूनामेककार्यकरणे वैमत्यसंभावनाभयेन महेशितुरेकत्वकल्पना' भोजनादिव्ययभयात् कृपणस्यात्यन्तवल्लभपुत्रकलत्रमित्राविपरित्यजनेन शून्यारण्यानीसेवनतुलामाकलयति । अनेककोटिकासरघाशतसंपाद्यत्वेऽपि शक्रमूर्धमधुच्छत्राविकार्याणामेकरूपतयाविगानेनोपलम्भात् । ४८. किंच ईश्वरस्याखिलजगत्कर्तृत्वेऽभ्युपगम्यमाने शास्त्राणां प्रमाणेतरताव्यवस्थाविलोपः स्यात् । तथाहि-सर्व शास्त्रं प्रमाणमीश्वरप्रणीतत्वादितरतत्प्रणीतशास्त्रवत् । प्रतिवाद्यादिव्यवस्थाविलोपश्च, सर्वेषामीश्वरादेशविधायित्वेन तत्प्रतिलोमाचरणानुपपत्तेः प्रतिवाद्यभावप्रसङ्गात् । इति न सृष्टिकरस्य महेश्वरस्य कथंचिदपि सिद्धिः। सृष्टिकर्तृताकी धज्जियां उड़ा रहे हैं, उसने क्यों बनाया ? क्या यही उसकी सर्वज्ञता है ? यदि वह वस्तुतः सृष्टिका कर्ता है तब उसने हम जैसे तथोक्त नास्तिकोंकी रचना करके तो अपने ही पैरोंपर कुल्हाड़ी पटकी है। यहाँ तो स्पष्ट हो उसको बुद्धिका दिवाला निकल गया है। ४७. बहुत-से ईश्वरोंको माननेपर कार्योंके करने में विवाद हो सकता है तथा कार्योंका सिलसिला बिगड़ सकता है । इसी डरसे ईश्वरको एक मानना तो उस कंजूसके समान है जो खाने-पीनेके खरचेके डरसे अपने प्यारे दुलारे बाल-बच्चों तथा स्त्री, मित्र आदिको छोड़कर शून्य जंगलमें जा बसता है। देखो, सैकड़ों दीमकके कीड़े मिलकर एक बांबीको बनाते हैं और उसमें बिना किसी विवादके हिल-मिलकर बसते हैं। हजारों मधुमक्खियाँ मिलकर शहदका एक छत्ता लगाती हैं और सब उसीमें व्यवस्थासे रह जाती हैं। फिर इन वीतरागी ईश्वरोंमें ही विवादका क्या कारण है ? वे तो सबके सब सर्वज्ञ तथा वीतरागी होंगे उन्हें झगड़नेकी तो कोई आवश्यकता ही नहीं है। बल्कि अनेक ईश्वर होनेसे सबकी सलाहसे बड़ी सुन्दर प्रजातन्त्रात्मक भावोंकी रक्षा करनेवाली सृष्टि होगी। ४८. ईश्वर जब संसार-भरके समस्त कार्योंका कर्ता है, तब संसारमें जितने मत-मतान्तर हैं उनके शास्त्र भी ईश्वरने ही बनाये हैं, अतः सभी शास्त्र परमपूज्य तथा प्रामाणिक माने जाने चाहिए । अतः हम लोगोंके ईश्वर खण्डनवाले शास्त्र तो आपको अवश्य ही ईश्वरकृत मानकर प्रमाण मान लेना चाहिए और इस सृष्टिकर्तृत्वके बखेड़ेको खतम कर देना चाहिए। फिर उस समय 'ये शास्त्र प्रमाण हैं, ये अप्रमाण हैं ये बातें आपको भूल जाना चाहिए। अन्यथा आपको ईश्वरद्रोहका बड़ा भारी पाप लगेगा। हम कह सकते हैं कि 'संसारके सभी शास्त्र और खासकर ईश्वरका खण्डन करनेवाले शास्त्र प्रमाण हैं क्योंकि ये सब ईश्वरके द्वारा रचे गये हैं जैसे ईश्वर प्रणीत वेद आदि । और जब सभी शास्त्र ईश्वर प्रणीत होनेसे प्रमाण हो जायेंगे, तब 'यह वादो और यह प्रतिवादो, यह हमारा मत और यह तुम्हारा मत' इन सब व्यवहारोंका लोप हो जायगा । हम जो ईश्वरका खण्डन कर रहे हैं वह भी ईश्वरकी आज्ञा या उसके इशारेसे ही कर रहे हैं, अतः आपको उसे ईश्वर वाक्यकी तरह मान लेना चाहिए। हम लोग भी आखिर विश्वके भीतर ही हैं अतः उसके इशारेके खिलाफ़ तो जा ही नहीं सकते। इस प्रकार महेश्वरको जगन्नियन्ता मानने में अनेकों दूषण तथा अव्यवस्थाएं होती हैं अतः वह जगत्का कर्ता नहीं हो सकता। कोई भी प्रमाण ऐसा नहीं मिला जो महेश्वरको सृष्टिकर्ता सिद्ध कर सकता हो। अतः संसारके. पदार्थों का यथावत् प्रकाश करनेवाला जिसका ज्ञान है वह सर्वज्ञ तथा वीतराग हो देवत्वके पदपर बैठ सकता है उसे ही देव मानना उचित है अन्यको नहीं। १. -कल्पनं भो-म.२। २. "तथापि शास्त्राणां प्रमाणेतरव्यवस्थाविलोपः, सर्वशास्त्रं प्रमाणमेव स्यात् ईश्वरप्रणीतत्वात् तत्प्रणीतप्रसिद्धशास्त्रवत् ॥"-न्यायकुमु. पृ. १०८। ३. "प्रतिवाद्यादिव्यवस्थाविलोपश्च सर्वेषामीश्वरादेशविधायित्वात् ॥"--न्यायकुमु. पृ. १००। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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