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________________ - का० ४६. $ ५१] जैनमतम् । प्रयोगोऽत्र-नास्ति सर्वज्ञः, प्रमाणपश्चत्वाना(ग)ह्यमाणत्वात, खरविषाणवत । ६५०. किंच, यथाऽनादेरपि, सुवर्णमलस्य क्षारमृत्पुटपाकाविप्रक्रियया विशोध्यमानस्य निर्मलत्वम्, एवमात्मनोऽपि निरन्तरं ज्ञानाद्यभ्यासेन विगतमलत्वात्सर्वज्ञत्वं किं न भवेदिति मतिस्तदपि न, अभ्यासेन हि शुद्धस्तारतम्यमेव भवेन्न परमःप्रकर्षः, न हि नरस्य लङ्घनमभ्यासतस्तारतम्यवदप्युपलभ्यमानं सकललोकविषयमुपलभ्यते । उक्तं च "दशहस्तान्तरं व्योम्नो यो नामोल्प्लुत्य गच्छति । न योजनशतं गन्तुं शत्तोऽभ्यासशतैरपि ॥१॥” इति ।' ६५१. अपि च से सर्व वस्तुजातं केन प्रमाणेन जानाति । कि प्रत्यक्षेण, उत यथासंभवं सर्वैरेव प्रमाणैः। न तावत्प्रत्यक्षेण, तस्य संनिहितप्रतिनियतार्थनाहित्वात् । नाप्यतीन्द्रियप्रत्यक्षेण; तत्सद्भावे प्रमाणाभावात् । नापि सर्वैरेव प्रमाणैः, तेषां प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् सर्वेषां सर्वज्ञतापत्तेश्चेति । द्वारा किया जाता है।" अतः यह सुनिश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणोंका विषय नहीं होता जैसे कि गधेका सींग। - ६५०. प्रश्न-जिस तरह खदानमें पड़ा हुआ सुवर्ण अनादिकालसे अभीतक मलिन रहा है परन्तु सुहागा आदि शोधक द्रव्योंके साथ जब वह परियामें रखकर अग्निमें तप या जाता है तब वह निखरकर सौटचका निर्मल सोना हो जाता है उसी प्रकार अनादिकालसे कर्मान्धमें जकड़ा हुआ यह आत्मा अज्ञानी बन रहा है, परन्तु सतत ज्ञानाभ्यास तथा योग जप-तप माादि उपायोंसे धीरेधीरे जब इसके कर्मकलंक धुल जायेंगे तब यह भी पूर्णज्ञानी तथा सर्वज्ञ क्यों नहीं बन सकता? उत्तर-आपका यह अभ्यासके द्वारा सर्वज्ञ बननेका क्रम अनुभवहीनताका सूचक है। अभ्याससे कुछ फर्क तो पड़ सकता है, जो आत्मा आज निपट अज्ञानी है वह कल चार अक्षरका ज्ञान कर ले । परन्तु अभ्यासमें इतनी ताकत नहीं है कि वह वस्तुके स्वभावका आमूल परिवर्तन कर सके। मूल वस्तुमें थोड़ा-बहुत अतिशय अभ्यासके भरोसे आ सकता है। अतः अभ्यास या जप-तपके द्वारा शुद्धिमें कमोवेशी हो सकती है परन्तु सर्वज्ञताको पैदा करनेवाली शुद्धि नहीं हो सकती। कोई आदमी प्रतिदिन ऊँचा कूदनेका अभ्यास करता है, तो यह तो सम्भव है कि जहां साधारण आदमी ४-५ हाथ कूदते हैं वह ७-८ हाथ हदसे हद १० हाथ कूद जाय । पर कितना भी अभ्यास क्यों न किया जाय क्या कभी १०० योजन ऊंचा कूदनेकी या लोकको लांघ जानेकी सामर्थ्य उसमें आ सकती है ? कहा भी है-"जो आदमी अभ्यास करनेसे आकाशमें दश हाथ ऊंचा उछल सकता है, क्या वह सैकड़ों वर्ष तक अभ्यास करनेपर भी १०० योजन ऊंचा उछल सकता है ?" तात्पर्य यह कि-अभ्यासकी भी एक मर्यादा होती है अतः ज्ञानकी बढ़ती भी अभ्याससे अपनी मर्यादाको नहीं लांघ सकती। वह इतना नहीं बढ़ सकता कि सर्वज्ञ बन बैठे। ५१. अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारा सर्वज्ञ संसारको समस्त वस्तुओंको प्रत्यक्ष से जानता है या यथासम्भव सभी प्रमाणोंसे ? प्रत्यक्ष तो इन्द्रियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली वर्तमान वस्तुओंको ही जानता है अतः उससे अतीत, अनागत, दूरवर्ती तथा सूक्ष्म अतीन्द्रिय पदार्थोंका परिज्ञान नहीं हो सकता । अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष तो विवादग्रस्त है, उसमें कोई प्रमाण नहीं है। यथासम्भव सभी प्रमाणोंसे थोड़ा-थोड़ा जानकर टोटलमें सर्वज्ञ बनना तो उचित नहीं है, क्योंकि सभी प्रमाणोंका मूल प्रत्यक्ष है और जब प्रत्यक्ष ही हिम्मत हार रहा है तब और प्रमाण तो अपने आप निराश हो जायेंगे । और इस तरह तो संसारके बहुत-से प्राणी कुछ चीजोंको प्रत्यक्षसे जानकर कुछको १. उद्धृतोऽयम्-तसं. पृ. ८२६ । आतप. पृ. २१९ । सिद्धि वि. टी. । बृहस्सर्वज्ञसि. पृ. १२५। २. स हि सर्व भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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