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________________ -का० ४६.६ ४४] जैनमतम् । १८५ ४३. प्रकरणसमाश्चामी, प्रकरणचिन्ताप्रवर्तकानां हेत्वन्तराणां सद्भावात् । तथाहिईश्वरो जगत्कर्ता न भवति निरुपकरणत्वात्, वण्डचक्रचीवरायुपकरणरहितकुलालवत्, तथा व्यापिस्वादाकाशवत्, एकत्वात्तद्वदित्यादय इति । $४४. नित्यत्वादीनि तु विशेषणानि तद्वयवस्थापनायानीयमानानि शण्डं प्रति कामिन्या. • रूपसंपन्निरूपणप्रायाण्यपकर्णनीयान्येव । विचारासहत्वख्यापनार्थं तु किंचिदुच्यते । तत्रादौ नित्यवं विचार्यते तच्चेश्वरे न घटते। तथाहि-नेश्वरो नित्यः, स्वभावभेदेनैव क्षित्यादिकार्यकर्तृत्वात, अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं कूटस्थं नित्यमिति हि नित्यत्वलक्षणाभ्युपगमात् । स्वभावभेदानभ्युपगमे च सृष्टिसंहारादिविरुद्धकार्यकारित्वमतिदुर्घटम् । नापि तज्ज्ञानादीनां नित्यत्वं वाच्यं प्रतीतिविरोधात्, ईश्वरज्ञानावयो न नित्या ज्ञानादित्वावस्मदाविज्ञानादिवदित्यनुमानविरोधाच्च । एतेन तदीयज्ञानादयो नित्या इत्यावि यदवादि तदपोहितमूहनीयम्। ६४३. जगत्को अकतंक सिद्ध करनेवाले अनेक प्रत्यनुमान-विपरीत अनुमानोंकी मौजूदगी होने से आपके ये सब हेतु प्रकरणसम हैं। ये विपरीत अनुमान विरुद्ध प्रकरणकी चिन्ता उपस्थित करके पहलेके मूलहेतुकी सामर्थ्य रोक देते हैं। अकर्तृत्व साधक अनुमान ये हैं-ईश्वर जगत्का रचनेवाला नहीं हो सकता, क्योंकि उसके पास जगत्को रचनेके उपकरण, हथियार आदि कारणसामग्री नहीं हैं, जैसे कि दण्ड, चाक तथा चीवर आदि उपकरणोंसे रहित कुम्हार घड़ेको नहीं बनाता। इसी तरह ईश्वर भी बिना हथियार जगत्का रचनेवाला नहीं हो सकता। इसी तरह ईश्वर इस सृष्टिका विधाता नहीं है क्योंकि वह व्यापी होनेसे क्रियाशून्य है जैसे कि आकाश । जो स्वयं बिलकुल निष्क्रिय है-हिल-डुल भी नहीं सकता उससे इस जगत्को उत्पत्ति क्रिया नहीं मानी । इसी प्रकार ईश्वर इस विचित्र जगत्का कर्ता नहीं हो सकता क्योंकि वह एक है एक स्वभाववाला है जैसे कि आकाश! इत्यादि अनेकों अनुमान उपस्थित किये जा सकते हैं। ४४. ईश्वरकी सिद्धिके लिए उसके नित्यत्व सर्वज्ञत्व आदि विशेषणोंका उपस्थित करना तो उसी तरह निरर्थक एवं हास्यास्पद है जैसे किसी नपुंसकको रिझानेके लिए किसो कमनीय कामिनीके रूप, लावण्य आदिकी प्रशंसा करना। अतः जब ईश्वर मूलतः ही सिद्ध नहीं है तब उसके सर्वज्ञत्व आदि विशेषणोंकी कथाका सुनना समय खराब करना है फिर भी उन विशेषणोंकी निरर्थकता दिखानेके लिए कुछ विचार करते हैं। सबसे पहले ईश्वरकी नित्यताका ही विचार किया जाता है। ईश्वर नित्य नहीं है क्योंकि वह पृथिवी, वन, नदी, पर्वत आदि विचित्र कार्यों को विभिन्न स्वभावोंसे बनाता है । यदि ईश्वरके स्वभावभेद न माना जाय तो ये विचित्र कार्य उत्पन्न ही नहीं हो सकेंगे। एक स्वभाववाली वस्तुसे एक जैसे ही एक ठप्पेके कार्य ही उत्पन्न होते हैं। पर ईश्वर रचना करना, संहार करना आदि विरुद्ध कार्योंको करता है अतः सृष्टि करते समय संहार स्वभावका अभाव तथा संहारके समय सृष्टि स्वभावका अभाव मानना ही होगा। जिसमें स्वभाव भेद होता है वह नित्य नहीं रह सकता। जो वस्तु सदा एक जैसी रहती हो, जिसमें कोई नूतन स्वभाव उत्पन्न होता हो और न जिसके किसी पूर्वस्वभावका नाश ही होता हो वह कूटस्थ -लुहारकी निहाईके समान सदा स्थायो वस्तु नित्य कही जाती है। पर जिसमें स्वभाव भेद होता है वह नित्य नहीं रह सकता। ईश्वरके ज्ञान, इच्छा तथा प्रयत्न आदि गुण भी नित्य नहीं हैं। क्योंकि विभुद्रव्यके विशेष गुण अनित्य ही हुआ करते हैं अतः ईश्वरके ज्ञानादिको नित्य कहना प्रतीतिविरुद्ध है । 'ईश्वरके ज्ञान आदि गुण नित्य नहीं हैं क्योंकि वे ज्ञान आदि विशेष गुण हैं जैसे १. “बोधो न वेषसो नित्यो बोधत्वादन्यबोधवत् । इति हेतोरसिद्धत्वान्न वेधाः कारणं भुवः ॥१२॥" -तत्त्वार्थश्लो. प. ३६० । २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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