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दशिता।
षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ४६.६४१ - दृष्टान्तानुग्रहेण सशरीरासर्वज्ञासर्वकर्तृ पूर्वकत्वसाधनात् । न च धूमाल्पावकानुमानेऽप्ययं दोषः, तत्र तार्णपार्णादिविशेषाधारवह्निमात्रव्याप्तस्य धूमस्य दर्शनात् । नैवमत्र सर्वज्ञासर्वकर्तृविशेषाधिकरणतरसामान्येन कार्यत्वस्यास्ति व्याप्तिः, सर्वज्ञस्य कर्तुरतोऽनुमानात्प्रागसिद्धेः।।
४१. व्यभिचारिणश्चामी बुद्धिमन्तमन्तरेणापि विधुवादीनां प्रादुर्भावविभावनात, स्वप्नाद्यवस्थायामबुद्धिमत्पूर्वस्यापि कार्यस्य दर्शनाच्चेति।
४२. कालात्ययापविष्टाश्चैते प्रत्यक्षागमबाधितपक्षानन्तरं प्रयुक्तत्वात् । 'तबाधा च पूर्वमेव दर्शिता। 'वे पहले नहीं थे फिर उत्पन्न हो जाते हैं जैसे कि घड़ा,' इत्यादि हेतुओंका खण्डन कार्यत्व हेतुकी तरह ही कर लेना चाहिए । जैसे-जैसे शंका समाधान कार्यत्वहेतुमें किये गये हैं वैसे ही इन हेतुओंमें लगा लेने चाहिए। जिस प्रकार कार्यत्व हेतुमें भागासिद्ध, विरुद्ध, व्यभिचार, बाधा आदि अनेकों दोष आते हैं ठीक उसी प्रक्रियासे इन हेतुओंमें भी वे दोष आते हैं। सबसे मोटा दोष तो यह है कि जिस घड़ेको बार-बार उदाहरणके रूपमें पेश किया जाता है उस घड़ेकी कृपासे तो जगत्का कर्ता सशरीर असर्वज्ञ एवं असवंगत बुद्धिमान् सिद्ध होता है। इसलिए सर्वज्ञत्व आदि जो इष्ट हैं उनसे विपरीत असर्वज्ञत्व आदिको सिद्ध करनेके कारण ये सभी हेतु विरुद्ध हैं। धूमसे अग्निका अनुमान करने में यह दोष नहीं आ सकता; क्योंकि-यहाँ पहाड़में रहनेवाली तिनके और पत्तोंकी विशेष अग्निमें तथा रसोईघरमें पायी जानेवाली लकड़ी आदिको विशेष अग्निमें रहनेवाले एक अग्नित्व सामान्यका अनुभव होता है और इसी अग्नित्व सामान्यकी बदौलत सामान्य रूपसे अग्निका अनुमान करना सहज है। परन्तु यहाँ पृथिवी आदि सर्वज्ञकर्ता और घट आदिके असर्वज्ञकर्ता रूप दो-विशेष कर्ताओंमें पाया जानेवाला कोई भी कर्तृत्वनामका सामान्यधर्म अनुभवमें नहीं आता जिससे पहले सामान्य कर्ताका अनुमान किया जा सके; क्योंकि कार्यत्व हेतुवालेके योगके पहले कहीं भी सर्वज्ञकर्ताके दर्शन नहीं होते जिससे उसमें रहनेवाले सामान्यधर्मका परिज्ञान किया जा सके । वस्तुतः किसी भी सर्वज्ञ या अशरीरीका कर्तृत्वके रूपमें दर्शन हुआ ही नहीं है । दर्शनकी बात जाने दीजिए, उसका अनुमान करना भी नितान्त असम्भव है।
४१. ये सभी कार्यत्वात्, सन्निवेशविशिष्टत्वात्' आदि हेतु व्यभिचारी भी हैं। देखो 'बिजली चमकती है, मेघ गड़गड़ाता है' यहाँ बिजली तथा मेघ आदि कार्य हैं, अमुक सन्निवेश-- बनावटवाले भी हैं, इनके उपादान कारण भी अचेतन ही परमाणु हैं, ये पहले नहीं थे पीछे चमकने लगे तथा गड़गड़ाने लगे इस तरह इनमें सभी हेतु तो पाये जाते हैं परन्तु इन्हें किसी भी बुद्धिमान्ने बनाया नहीं है-ये तो अपने-आप परमाणुओंका संयोग होनेसे बन गये हैं। अतः बिजली आदिमें हेतुके रह जानेसे तथा साध्यके न रहने के कारण उक्त हेतु व्यभिचारी हैं। स्वप्न तथा मूच्छित आदि अवस्थाओंमें बुद्धि के बिना भी अनेकों कार्य देखे जाते हैं।
४२. आपके ये समस्त हेतु कालात्ययापदिष्ट भी हैं; क्योंकि बिना जोते-बोये अपने ही आप उगनेवाले जंगली घास आदिमें प्रत्यक्षसे कर्ताका अभाव निश्चित है। आपके आगममें भी 'न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः'-ईश्वरमें लोकका कर्तृत्व नहीं है वह कर्मको रचना नहीं करता', 'यह तो स्वाभाविक है' इत्यादि रूपसे अकर्तृत्व रूप में भी ईश्वरका प्रतिपादन किया गया है। अतः प्रत्यक्ष और आगमसे बाधित पक्षमें इन हेतुओंकी प्रवृत्ति होनेसे ये बाधित विषय होने के कारण कालात्ययापदिष्ट हैं। प्रत्यक्षादिसे पक्षमें बाधा आनेका प्रदर्शन पहले किया जा चुका है।
१. तद्बाधाच्च पूर्वमेव प्रदर्शिताः भ. २।
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