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________________ -का. ४६. ६४०] जैनमतम् । १८३ तदा तस्य कः पुरुषकारः, अदृष्टापेक्षस्य च कर्तृत्वे किं तत्कल्पनया, जगतस्तवधीनतेवास्तु, किमनेनान्तर्गडुनात्र। ३८. चतुर्थपञ्चमयोस्तु वीतरागद्वेषताभावः प्रसज्यते । तथाहि-"रागवानीश्वरः क्रीडाकारित्वाबालवत्, तथा अनुग्रहप्रदत्वाद्राजवत, तथा द्वेषवानसौ निग्रहप्रदत्वात्तद्वदेव" इति । ३९. अथ स्वभावतः, तह्यचेतनस्यापि जगत एव स्वभावतः प्रवृत्तिरस्तु कि 'तत्कर्तृकल्पनयेति । न कार्यत्वहेतुर्बुद्धिमन्तं कर्तारमीश्वरं साधयति । एवं संनिवेशविशिष्टत्वादचेतनोपादानस्वादभूतभावित्वादित्यादयोऽपि स्वयमुत्थाप्याः, तुल्याक्षेपसमाधानत्वात् । ४०. किंच क्षित्यावेर्बुद्धिमत्पूर्वकत्वे साध्ये प्रदीयमानाः सर्वेऽपि हि हेतवो विरुद्धा . जैन-यदि सब कुछ सुख-दुःख हमलोगोंको अपने कर्मों के अनुसार ही मिलता है तब ईश्वरने क्या पुरुषार्थ किया। ईश्वरसे बढ़कर तो कर्मोकी ही शक्ति सिद्ध होती है। जब ईश्वरको भी अन्तमें कर्मोंके वश होकर ही नाचना पड़ता है तब बीचमें दलालके समान उसकी कल्पना करना ही निरर्थक है, हमी लोग सीधे ही कर्मों के फल भोग लेंगे। सच्चा पुरुषार्थी तो वह है जो कर्मों की परवाह न करके जगत्को सुखी बनाता है, वही वस्तुतः ईश्वर है। इससे तो यही अच्छा है कि यह जगत् सीधा कर्मके परतन्त्र रहे एक निरर्थक ईश्वरकी पराधीनता क्यों जगत्के सिर लादी जाती है। ऐसा ईश्वर तो अन्तगड-गलेमें बढ़े हए मांसपिण्डकी तरह बिलकुल निरर्थक है बोझरूपी है। ३८. यदि यह जगत् ईश्वरका क्रीडाक्षेत्र है, और अपने मनोविनोदके लिए उसने ये खेलखिलोने बनाये हैं; तब ईश्वर तो खिलाड़ी लड़कोंकी ही तरह राग-द्वेषवाला हो जायेगा। मनोविनोदके लिए लीला रचना तो रागवृत्तिका ही फल है। और जिस तरह बच्चे ऊबकर अपने बनाये हुए खिलौनोंको तोड़ देते हैं उसी तरह ईश्वरको भी ऊबकर इस सृष्टिका महाप्रलय भी जब चाहे कर देना चाहिए। अतः हम निश्चित रूपसे कह सकते हैं कि-'ईश्वर रागी है क्योंकि वह खेल खेलता है जैसे कि बालक।' यदि शिष्टानुग्रह तथा दुष्टोंको दण्ड करनेके लिए वह जगत् चता है: तब भी वह वीतरागी तथा निर्वैर नहीं हो सकता। अपने भक्तोंका उद्धार रागसे तथा दुष्टोंको दण्ड देना द्वेषसे ही हो सकता है। बिना राग-द्वेष हुए निग्रह तथा अनुग्रह नहीं किये जा सकते। वीतरागी व्यक्ति इस निग्रह-अनुग्रहके प्रपंचमें पड़ ही नहीं सकता। अतः यह भी निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि-'ईश्वर राग और द्वेषवाला है क्योंकि वह किसीका अनुग्रह तथा किसीका निग्रह करता है जैसे कि राजा।' ३९. यदि ईश्वर स्वभावसे ही इस लीलामय जगत्को उत्पन्न करता है, जैसे अग्नि जलती है, वायु चलती है इत्यादि; तो जब आखिरमें स्वभाव मानना ही पड़ता है तब अचेतन पदार्थोंका ही यह स्वभाव मान लीजिए कि-'वे जेसे कारणोंका संयोग मिलता है उसी रूपसे अपनी प्रवृत्ति स्वभावसे ही करते हैं तात्पर्य यह है कि जैसे हाइड्रोजनमें जब आक्सिजन अमुक मात्रामें मिलता तब स्वभावसे ही वह जल बन जाता है। इस बीचके एजेण्ट ईश्वरको क्या आवश्यकता है। इस प्रकार कार्यत्व हेतुसे किसी भी तरह ईश्वरकी सिद्धि नहीं होती। $ ४०. इसी तरह 'पृथिवी आदि बुद्धिमान् कर्ताके द्वारा रचे गये हैं क्योंकि उनमें अचेतन परमाणु उपादान कारण होते हैं जैसे कि घटमें', 'उनमें घड़ेकी तरह एक बनावट पायी जाती है', १. -पेक्ष्य च म. २। २. जगत एव तदधीनतास्तु आ.। जगतस्तदधीनं वास्तु प. १, ३। ३. "किमनेनान्तर्गडनात्र' इति नास्ति भ. १, २, प. १, २, क.। ४.-स्तु रागद्वेषता भावः आ. क.। ५. "क्रीडार्थायां प्रवृत्तौ च विहन्येत कृतार्थता ॥५६॥"-मीमांसाश्लो. ६५३ । तश्वसं. पृ. ७७। ६. तत्कल्पनया भ. २ । ७. -यमधस्कार्याः म.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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