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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ४६. ६ ३६सुगतादिवत् । अथ कर्तृत्वम् तहि कुम्भकारादोनामप्यनेककार्यकारिणामैश्वर्यप्रसक्तिः । नाप्यन्यत्; इच्छाप्रयत्नव्यतिरेकेणान्यस्यैश्वर्यनिबन्धनस्येश्वरेऽभावात् ।
३६. किंच ईश्वरस्य जगन्निर्माणे यथारचिप्रवृत्तिः १, कर्मपारतन्त्र्येण' २, करणया ३, क्रोडया ४, निग्रहानुग्रहविधानार्थ ५, स्वभावतो ६ वा।
३७. अत्राद्यविकल्पे कदाचिदन्यादृश्येव सृष्टिः स्यात् । द्वितीये स्वातन्त्र्यहानिः । तृतीये सर्वमपि जगत्सुखितमेव कुर्यात्, अथेश्वरः किं करोति पूर्वाजितैरेव कर्मभिर्वशीकृता दुःखमनुभवन्ति जाननेसे ही सृष्टिकर्ता या ईश्वर तो नहीं हो जाते। यदि वह समस्त पदार्थोके जानने की प्रभुता रखता है तब भी वह इस प्रभुतासे बुद्ध आदिकी तरह सर्वज्ञ तो बन सकता है सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं । यदि वह रचना करता है और इसलिए ईश्वर है, तो घड़ेको रचना कुम्हार भी करता है, जुलाहा कपड़ा बुनता है, चित्रकार चित्रकी रचना करता है इसलिए रचना करनेके कारण ये सभी छोटे-मोटे कारीगर ईश्वरके आसनपर जा बैठेंगे। अनेक कार्योंकी रचना करना भी कोई खास प्रभुता नहीं कही जा सकती, क्योंकि अनेक कलाओंमें कुशल एक ही व्यक्ति भिन्न-भिन्न सहकारिकारणोंकी मददसे घड़ा, कपड़ा, चित्र आदि अनेकों कार्य उत्पन्न कर सकता है तथा करता भी है, अतः वह भी ईश्वरके सर्वोच्च पदका अधिकारी हो जायेगा। इच्छा और प्रयत्नके सिवाय अन्य कोई वस्तु ईश्वर में प्रभुता बतानेवाली है भी नहीं जिससे उसमें किसी अन्य प्रकारके ऐश्वर्यकी कल्पना की जा सके।
६३६. अच्छा यह भी तो बताओ कि ईश्वर इस संसारको क्यों बनाता है ? क्या वह अपनी रुचिसे जगत्को गढ़ने बैठ जाता है, अथवा हम लोगोंके पुण्य-पापके अधीन होकर इस जगत्की सृष्टि करता है, या दयाके कारण वह जगत् बनाता है या उसने क्रीड़ाके लिए ये खेल-खिलौने बनाये हैं ? किंवा शिष्टोंकी भलाई तथा दुष्टोंको दण्ड देनेके लिए यह जगत्जाल बिछाया है ? या उसका यह स्वभाव ही है कि वह बैठे-ठाले कुछ-न-कुछ किया हो करे ?
६३७. यदि ईश्वर अपनी इच्छानुसार जैसा मनमें आता है उसी तरह इस सृष्टिको बमाता है, तो ईश्वरकी कभी अन्य प्रकारकी इच्छा होनेपर विलक्षण प्रकारकी भी सृष्टि हो सकती है । ईश्वर तो स्वतन्त्र है, उसकी इच्छापर कोई अंकुश भी नहीं है अतः उसका दूसरे प्रकारके जगत् बनानेकी इच्छा होना भी सम्भव है। परन्तु अभी तक इस जगत्का एक-ही रूप एक ही जैसा नियम देखा-सुना जाता है अन्य प्रकारकी सृष्टि तो न देखी ही गयी है और न सुनी ही। यदि ईश्वर हम लोगोंके पुण्य-पापके अनुसार ही सृष्टि करता है; तब ईश्वरको स्वतन्त्रता कहां रही ? वह काहेका ईश्वर ? वह तो केवल हमारे कर्मोंके हुकुमको बजानेवाला एक साधारण मैनेजर सरोखा ही हुआ। यदि ईश्वर दया करके इस जगत्को रचता है; तब संसारमें कोई दुःखो प्राणी उत्पन्न नहीं होना चाहिए । सारा संसार खुशहाल सुखो-ही-सुखी उत्पन्न होवे।
ईश्वरवादी-ईश्वर क्या करे, ये दःखी जीव अपने पूर्वजन्ममें कमाये गये कर्मोंको भोगते हैं। जो जैसा करेगा वैसा भोगेगा। इसलिए दयालु ईश्वर-उनके पापकर्मोंके भोगके लिए दुःखको सामग्री भी जुटाकर उनका उपकार ही करता है। वे अपने पापोंको भोगकर उनसे
छूट जायेंगे।
१."किंच, ईश्वरस्य जगन्निर्माणे यथारुचि प्रवृत्तिः, कर्मपारतन्त्र्येण, करुणया, धर्मादिप्रयोजनोद्देशेन, क्रीडया, निग्रहानुग्रहविधानार्थम, स्वभावतो वा ?" -न्यायकुमु. प. १०७। २.-ण वा क-म.३। "अभावाच्चानुकम्प्यानां नानुकम्पास्य जायते । सृजेच्च शुभमेवैकमनुकम्पाप्रयोजितः ॥५३॥" -मीमापाइलो. पृ. १५२ । तत्त्वसं. पू. ०१ । सन्मति.टी. पृ. १३० । स्या. रत्ना. पृ. ४४७ । ३. -4 करोति म. १,प. १,२. आ..क.।
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