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________________ -का० ४६ ६३५] जैनमतम् । १८१ चादिवत् । जातिविशेषोऽपि नादृश्यत्वे हेतुरेकस्य जातिविशेषाभावादनेकव्यक्तिनिष्ठत्वात्तस्य।। ३४. अस्तु वा दृश्योऽदृश्यो वासौ, तथापि कि सत्तामात्रेण १, ज्ञानवत्त्वेन २, ज्ञानेच्छाप्रयत्नवत्त्वेन ३, तत्पूर्वकव्यापारेण ४,. ऐश्वर्येण ५, वा क्षित्यादेः कारणं स्यात् । तत्राद्यपक्षे कुलालादीनामपि जगत्कर्तृत्वमनुषज्यते, सत्त्वाविशेषात् । द्वितीये तु योगिनामपि कर्तृत्वापत्तिः। तृतीयोऽप्यसांप्रतः, अशरीरस्य पूर्वमेव ज्ञानाद्याश्रयत्वप्रतिषेधात् । चतुर्थोऽप्यसंभाव्यः, अशरीरस्य कायवाक्कृतव्यापारवत्त्वासंभवात् । ३५. ऐश्वर्यमपि ज्ञातृत्वं कर्तृत्वमन्यद्वा । ज्ञातत्वं चेत् तत्कि ज्ञातृत्वमात्र सर्वज्ञातृत्वं वा । आद्यपक्षे ज्ञातैवासौ स्यानेश्वरः, अस्मदाद्यन्यज्ञातृवत् । द्वितीयेऽप्यस्य सर्वज्ञत्वमेव स्यान्नैश्वयं, जातिका है जो दष्टिगोचर न होकर गुप्तरूपसे ही कार्य करता रहता है' यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जब आप ईश्वरको अकेला एक ही मानते हैं, तब उसकी किसी जातिका कहना नितान्त असंगत है । जाति तो अनेक व्यक्तियोंमें रहती है, अकेली व्यक्तिमें नहीं। ३४. अच्छा. ईश्वर दृश्य या अदृश्य कैसा ही सही परन्तु वह अपनी मौजूदगी मावसे ही सृष्टिका कर्ता हो जाता है या ज्ञानवाला होनेसे, अथवा ज्ञान, इच्छा और प्रयत्नवाला होनेसे किंवा ज्ञानादिपूर्वक व्यापार करनेके कारण ऐश्वर्यवाला होनेसे ? यदि ईश्वर अपनी निष्क्रिय मौजूदगी मात्रसे ही बिना इशारेके ही इस जगत्को उत्पन्न कर देता है, तब एक कुम्हार भी कह सकता है कि-'यह जगत् मेरी मौजूदगीके कारण उत्पन्न हुआ है' कुम्हार ही क्यों, हम सभी लोग नित्य और व्यापक होनेसे सब जगह तथा हमेशा मौजूद रहनेवाले हैं अतः हम सभी कहेंगे कि'हमारी मौजूदगीके कारण ही यह चराचर सृष्टि हुई है' निष्क्रिय मौजूदगीसे ही जब 'सृष्टिकर्ता' का बड़ा पद मिल रहा है तब बहती गंगामें हाथ कोन न धोएगा? सभी ईश्वर बन जायेंगे। यदि समस्त जगत्का परिज्ञान होने मात्रसे ईश्वर जगत्को बनाता है, तो सर्वज्ञ योगियोंको भी जगतका परिज्ञान रहता ही है अतः वे सभी सर्वज्ञ योगी सृष्टिके कर्ता हो जायेंगे। अशरीरी ईश्वरके ज्ञान, इच्छा तथा प्रयत्नका होना तो मुक्त आत्माओंकी तरह नितान्त असम्भव है यह हम पहले कह चुके हैं । अतः वह ज्ञान इच्छा तथा प्रयत्नवाला होने के कारण भी सृष्टिकर्ता नहीं कहा जा सकता। 'ज्ञानादि पूर्वक व्यापार करनेसे ईश्वर जगत्का विधाता है' यह चौथा विकल्प भी असंगत है, क्योंकि जब ईश्वरके शरीर ही नहीं है तब उसका ज्ञानादि पूर्वक मन, वचन, कायका व्यापार ही केसे तथा कहां होगा ? आत्माका ज्ञानादि पूर्वक व्यापार तो शरीरमें ही या शरीरके द्वारा ही होता है। ६३५, ईश्वरको ऐश्वर्यके कारण सृष्टिका रचयिता कहना भी युक्तियुक्त नहीं मालूम होता; क्योंकि अभी तक उस ऐश्वर्यका स्वरूप ही अनिश्चित है जिसके कारण वह इस जगत्का नियन्ता होता है । आप बताइए कि-ईश्वरमें कैसा ऐश्वर्य है? क्या 'वह जगत्को जानता है इसलिए उसमें ज्ञातृत्व रूप प्रभुता है अथवा वह रचना करता है अतः कर्तृत्वरूप प्रभुता है अथवा इसमें कोई अन्य प्रकारको ही प्रभुता है ? जानने रूप प्रभुता भी दो प्रकारकी हो सकती है-एक तो कुछ ही 1, दूसरे समस्त पदार्थोंका यथावत् परिज्ञान करना। यदि वह सामान्यसे कुछ पदार्थोंको जानने रूप प्रभुता रखता है; तब वह इससे 'ज्ञाता' तो बन सकता है जगत्कर्ता नहीं, और ईश्वर भी नहीं जैसे हम लोग कुछ न कुछ जानते हैं अतः ज्ञाता तो कहे जाते हैं पर हम लोग मात्र कुछ १. "अस्तु वादृश्योऽसौ, तथापि सत्तामात्रेण, ज्ञानवत्त्वेन, ज्ञानेच्छाप्रयत्नवत्त्वेन, तत्पूर्वकव्यापारेण, ऐश्वर्येण वा क्षिरयादे; कारणं स्यात् ?" -न्यायकुमु. पृ. १०६ । २. -द्य विकल्पे भ. २ । ३. "ऐश्वर्यमपि ज्ञातृत्वम्, कर्तत्वम्, अन्यद्वा स्यात् ?"-न्यायकुमु. पृ.१०। ४. -मात्रं तद्विशेषो वा म. २ । ५. ज्ञान्येवासी म. २। ६. -ज्ञातृत्ववत् आ., क.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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