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________________ १८० षड्दर्शनसमुच्चये [का०४६. ६३३पक्षोऽप्ययुक्तः, तत्सद्भावावेदकस्य प्रमाणान्तरस्यैवाभावात् । ३३. अस्तु वा तत्र तत्सद्भावः, तथाप्यस्यादृष्टत्वे शरीराभावः कारणं, विद्यादिप्रभावः, जातिविशेषो वा। प्रथमपक्षे कर्तृत्वानुपपत्तिः अशरीरत्वाद, मुक्तात्मवत् । ननु शरीराभावेऽपि ज्ञानेच्छाप्रयत्नाश्रयत्वेन स्वशरीरकरणे कर्तृत्वमुपपद्यत इत्यप्यसमीक्षिताभिधानं, शरीरसंबन्धनैव तत्प्रेरणोपपत्तेः, शरीराभावे मुक्तात्मवत्तदसंभवात् । शरीराभावे च ज्ञानाधाश्रयत्वमप्यसंभाव्यं, तदुत्पत्तावस्य निमित्तकारणत्वात, अन्यथा मुक्तात्मनोऽपि तदुत्पत्तिप्रसक्तः। विद्यादिप्रभावस्य चादृश्यत्वहेतुत्वे कदाचिदसौ दृश्येत । न खलु विद्याभृतां शाश्वतिकमदृश्यत्वं दृश्यते, पिशाआवे, तथा जब कार्यत्व हेतु अबाधित होनेसे कालात्ययापदिष्ट दोषसे शून्य हो जाय तब वह जंगली पौधोंमें कर्ताका सद्भाव सिद्ध कर सके। इस प्रकार चक्रक दूषण आता है। उन जंगली तृणों में कर्ताका सद्भाव सिद्ध करनेवाला अन्य कोई प्रमाण तो दिखाई नहीं देता। ६३३. अथवा किसी तरह यह मान भी लिया जाय कि 'उन जंगली वृक्ष तथा लताओंमें कर्ता है। फिर भी आप यह बताइए कि वह हम लोगोंको दिखाई क्यों नहीं देता ? कितनी लुकीछिपी वस्तु हो कभी न कभी उसका दर्शन हो ही जाता है। क्या वह अशरीरी है इसलिए नहीं दिखाई देता अथवा विद्यामन्त्रादिसे अपनेको छिपाकर रखता है किंवा वह ऐसी ही किसी अदृश्य जातिका है ? यदि अदृश्यतामें उसका अशरीरी होना कारण है। तब वह अशरोरी ईश्वर कर्ता भी नहीं हो सकता। जिस प्रकार ईश्वरके सिवाय अन्य मुक्तजीव अशरीरी हैं और इसीलिए वे कत नहीं हैं उसी तरह शरीररहित ईश्वर भी कर्ता नहीं हो सकेगा। ईश्वरवादी-शरीरका कर्तृत्वमें कोई उपयोग नहीं है। कर्ता बननेके लिए मात्र ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न चाहिए । देखो, जब मनुष्य मरकर नया शरीर धारण करनेकी तैयारी करता है उस समय वह अशरीरी अर्थात् स्थूलशरीरसे रहित होकर भी नये शरीरको ग्रहण कर लेता है, उस नये शरीरमें उपयोगी परमाणु आदिकी प्रेरणा भी करता है। अतः कर्तृत्वके लिए शरीरको आवश्यकता नहीं है। जैन-मरनेके बाद स्थूल शरीर भले ही न हो परन्तु सूक्ष्मशरीर तो रहता ही है। इसी सूक्ष्मशरीरके सम्बन्धसे ही वह नये शरीरको ग्रहण कर सकता है। यदि वह सूक्ष्मशरीर ही सिलकमें न बचे तब तो वह सर्वथा अशरीरी होकर मुक्त ही हो जायेगा। शरीरके नहीं रहनेसे तो वह मुक्त आत्माओंकी तरह नये शरीरको धारण करनेकी ओर प्रवृत्ति हो नहीं कर सकता और यदि ईश्वरके शरीर नहीं है तब उसमें ज्ञान, इच्छा तथा प्रयत्न आदि भी नहीं हो सकेंगे। ज्ञानादिककी उत्पत्तिमें शरीर निमित्त कारण होता है । यदि शरीर रूप निमित्त कारणके बिना ही ज्ञानादिकी उत्पत्ति हो जाय; तो मुक्त आत्माओंमें भी ज्ञानादिकी उत्पत्ति होनी चाहिए । और तब आपकी द विशेष गणोंकी अत्यन्त निवत्ति रूप मक्ति नहीं रह पायेगी। यदि विद्या या मन्त्रादिके प्रभावसे ईश्वर अपनेको अदृश्य रखता है तो कभी किसीको तो दिखाई देना चाहिए। विद्या या मन्त्रादिके बड़े-से-बड़े प्रयोग करनेवाले विद्याधर अपनेको पिशाचोंकी तरह सदा नहीं छिपा सकते वे कभी-न-कभी प्रकट हो ही जाते हैं। पर ईश्वरका वृक्ष आदि बनाते हुए तो कभी भी किसीको दर्शन नहीं हुआ है। ईश्वरकी अदृश्यतामें जाति विशेषको कारण कहना कि-'वह इस तरहकी १. “अस्तु वा तत्सद्भावः, तथापि अस्या दृश्यत्वे शरीराभावः कारणम्, विद्यादिप्रभावः, जातिविशेषो वा।" -न्यायकुमु. पृ. १०५। स्या. रत्ना. पृ. १३३ । २. "अशरीरो ह्यधिछ ता नात्मा मुक्तात्मवत् भवेत् ॥७८॥ -मीमांसाश्लो. पृ. ६६० । “तस्यापि वितनुकरणस्य तत्कृतेरसंभवात् ।"-अष्टश, अष्टपह. पृ. २७१। “तत्संबन्धरहितस्य मुक्तात्मन इव जगत्कर्तृत्वानुपपत्तेः।" -सन्मति.टी. पृ. ११९। ३. - न शरीर -आ.क.। ४. ददृशे-भ. १,२, प. १,२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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