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________________ १७९ -का० ४६ ६३२] जैनमतम् । तेषां पक्षीकरणादव्यभिचारे, स श्यामस्तत्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवदित्यादेरपि गमकत्वप्रसङ्गान्न कश्चिद्धतुर्व्यभिचारी स्यात्, व्यभिचारविषयस्य सर्वत्रापि पक्षीकतुं शक्यत्वात् । ६३१. ईश्वरबुद्धयादिभिश्च व्यभिचारः, तेषां कार्यत्वे सत्यपि समवायिकारणादीश्वराद् विभिन्नबुद्धिमत्पूर्वकत्वाभावात् । तदभ्युपगमे चानवस्था। ६३२. तथा कालात्ययापदिष्टश्चायं अकृष्टप्रभवाङ्करादौ 'कञभावस्याध्यक्षेणाध्यवसायात् । अग्नेरनुष्णत्वे साध्ये द्रव्यत्ववत् । ननु तत्राप्यदृश्य ईश्वर एव कर्तेति चेत्, तन्न । यतस्तत्र तत्सद्भावोऽस्मादेवान्यतो वा प्रमाणासिध्येत् । प्रथमपक्षे चक्रकम् । अतो हि तत्सद्भावे सिद्धेऽस्यादृश्यत्वेनानुपलम्भसिद्धिः, तत्सिद्धौ च कालात्ययापदिष्टत्वाभावः, ततश्चास्मात्तत्सद्भावसिद्धिरिति । द्वितीयअर्थात् इन्हें भी ईश्वर रचित ही कहना उचित नहीं है; क्योंकि जिस वस्तुसे हेतुका व्यभिचार गया हो यदि उसी वस्तको पक्षमें शामिल करनेका रास्ता निकल जाय, तब कोई भी हेत व्यभिचारी नहीं हो सकेगा। जहां भी किसीने किसी हेतुका व्यभिचार दिखाया, बस तुरन्त ही उसे पक्षमें शामिल करके व्यभिचार वारण करना बच्चोंका खेल-सा हो जायेगा। और 'गर्भमें रहनेवाला मैत्रका लड़का सांवला है क्योंकि वह मैत्रका लड़का है जैसे मैत्रके वहीं मौजूद चार साँवले लड़के' ऐसे अनुमान भी गमक हो जायेंगे क्योंकि सर्वत्र व्यभिचारके विषयको पक्षमें शामिल करके अपने हेतको सच्चा बताया जा सकता है। अतः जिस पदार्थसे व्यभिचार दिया जाता है उसे पक्षमें शामिल करनेकी परिपाटी किसी भी तरह उचित नहीं है। ३१, ईश्वरकी बुद्धि तथा उसके प्रयत्न आदि गुणोंसे भी कार्यत्व हेतु व्यभिचारी है । ये सब बुद्धि आदि गुण आत्माके विशेष गुण होनेसे अनित्य-कार्य तो हैं परन्तु इनकी उत्पत्तिमें स्वयं ईश्वर रूप उपादानको छोडकर अन्य कोई बद्धिमान, ईश्वर निमित्तकारण नहीं होता। यदि इस ईश्वरको बुद्धि आदिकी उत्पत्तिमें दूसरा ईश्वर कारण हो तथा उसकी बुद्धि पैदा करने को तीसरा ईश्वर कारण माना जाय तो अनवस्था दूषण होता है। वही ईश्वर तो अपनी बुद्धि आदिको उत्पत्तिमें समवायिकारण होता है निमित्त कारण नहीं। पर प्रकृतमें तो बुद्धिमन्निमित्तत्व रूप कर्तृत्व ही विवक्षित है। ३२. कार्यत्व हेतु प्रत्यक्षसे बाधित पक्ष में प्रवृत्ति करनेके कारण कालात्ययापदिष्ट-बाधित भी है। बिना जोते-बोये उगनेवाले वनके घास-पौधे आदिमें किसी भी बुद्धिमान् कर्तीका प्रत्यक्ष नहीं होता बल्कि प्रत्यक्षसे तो वहां कर्ताका अभाव ही निश्चित होता है। जिस प्रकार अग्निको ठण्डा सिद्ध करनेके लिए दिया जानेवाला द्रव्यत्व हेतु अग्निको गरम जाननेवाले प्रत्यक्षसे बाधित पक्षमें प्रयुक्त होनेके कारण बाधित है उसी तरह कार्यत्व हेतु भी जंगली पौधों आदिमें कर्ताके अभावको ग्रहण करनेवाले प्रत्यक्षसे बाधित पक्षमें प्रयुक्त होनेके कारण बाधित है। जंगली पौधों आदिमें कर्ताको अदृश्य होनेके कारण अनुपलब्धि मानना तो बिलकुल कपोलकल्पना ही है, क्योंकि वहाँ अदृश्य कर्ताका सद्भाव करना ही कठिन है। आप बताइए कि-जंगली पौधोंमें अदृश्य कर्ता इसी अनुमानसे सिद्ध होता है या अन्य किसी दूसरे प्रमाणसे ? यदि इसी कार्यत्व हेतुवाले अनुमानसे कर्ताकी सिद्धिका प्रयत्न करोगे, तो चक्रक दूषण होगा। जहां तीन या तीनसे अधिक पदार्थों को सिद्धि एक दूसरेके आधीन हो जाती है वहाँ चक्रक दूषण होता है। जब कार्यत्व हेतुसे कर्ताका सद्भाव सिद्ध तो तब बिना जोते-बोये अपने आप ही उगनेवाले जंगली वृक्षोंमें अदृश्य होनेसे कर्ताको अनुपलब्धि मानी जाय, और जब यह निश्चय हो जाय कि-'जंगली पौधोंमें कर्ताको अनुपलब्धि अदृश्य होनेके कारण है कर्ताका अभाव होनेसे नहीं' तब कार्यत्व हेतुमें अबाधित विषयता १. - पक्षो-म. २ । २. कर्तुरभाव-भ. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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