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षड्दर्शनसमुच्चये
तादृशादेव तादृशमनुमातव्यम्, यथा यावद्धर्मात्मकाद्वह्नेर्यावद्धर्मात्मकस्य धूमस्योत्पत्तिः सुदृढप्रमाणात्प्रतिपन्ना तादृशादेव घूमात्ता दृशस्यैवाग्नेरनुमानमिति ।
$ २९ एतेन 'साध्यसाधनयोविशेषेण व्याप्तौ गृह्यमाणायां सर्वानुमानोच्छेदप्रसक्तिः' इत्याद्यपास्तं द्रष्टव्यमिति ।
३०. तथाकृष्टप्रभवैस्तरुतृणाविभिव्र्व्यभिचार्ययं हेतुः । द्विविधानि कार्याण्युपलभ्यन्ते, कानिचिदबुद्धिमत्पूर्वकाणि यथा घटादीनि कानिचित्तु तद्विपरीतानि यथाकृष्टप्रभवतृणादीनि । प्रकार पूर्ण समानता मिलाने का आग्रह किया जाय तो सभी अनुमानोंका उच्छेद हो जायेगा । हम कह सकते हैं कि - 'जैसी लकड़ीकी अग्नि रसोईघर में है वैसी ही अग्नि पर्वत में सिद्ध होनी चाहिए परन्तु पर्वत में तो तिनके पत्ते आदिको अग्नि है अतः हेतु विरुद्ध है । '
जैन - पर्वत में अग्निका अनुमान करते समय तो पर्वतकी अग्नि तथा रसोईघरकी अग्नि दोनों विशेष अग्नियों में रहनेवाला एक अग्नित्व नामका सामान्यधर्म पाया जाता है अतः इस सामान्य अग्निका अनुमान करना युक्त है परन्तु घटादिके शरीरी और असर्वज्ञकर्ता तथा पृथिवी आदिके अशरीरी और सर्वज्ञकर्ता में पाया जानेवाला कोई सामान्य कर्तृत्व धर्म प्रसिद्ध नहीं है जिससे सामान्य कर्ताका अनुमान किया जा सके। क्योंकि आज तक किसीको भी सर्वज्ञ और अशरीरी कर्ता विशेषका अनुभव ही नहीं हुआ है। यहां तो पर्वतकी अग्नि तथा रसोईघरकी अग्नि दोनों ही अग्नियाँ दृश्य हैं अतः उनमें रहनेवाला अग्निश्व नामक सामान्यधर्मं प्रसिद्ध हो सकता है परन्तु कुम्हार आदि शरीरी कर्ताके दृश्य होनेपर भी ईश्वरनामके अशरीरी और सर्वज्ञ कर्ताका तो स्वप्न में भी अनुभव नहीं होता जिससे दोनोंमें रहनेवाले सामान्य कर्तृत्वको कल्पना की जा सके जैसे गधेका सींग अप्रसिद्ध है, अतः उसमें रहनेवाले खरविषाणत्वरूप सामान्यधर्मकी कल्पना नहीं की जा सकती है उसी तरह सर्वज्ञ और अशरीरी कर्ता भी अप्रसिद्ध ही है अतः उसमें रहनेवाले किसी भी सामान्य कर्तृत्वको कल्पना नितान्त असम्भव है । अतः जैसे कारणसे जैसा कार्य देखा जाता है उससे वैसे ही कार्यका अनुमान करना प्रामाणिक - समझदारोंका कर्तव्य है न कि देखा तो जाता है शरीरी कर्ता और सिद्ध किया जाय अत्यन्त विलक्षण अशरीरी और सर्वज्ञ कर्ता । इसी तरह जितने और जैसे धर्मंवाली अग्निसे जितने और जैसे धर्मवाले घूमकी उत्पत्ति निर्बाध प्रमाणों द्वारा प्रसिद्ध हो उतने और वैसे धर्मवाले घूमसे वैसी हो अग्निका अनुमान करना परीक्षकोंको उचित है विलक्षणका नहीं । अतः दृष्टान्त के अनुसार शरीरी ओर असर्वज्ञ कर्ताके सिद्ध होने के कारण कार्यत्व हेतु विरुद्ध है ।
[ का० ४६. ९२९ .
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६ २९. अतः आपका यह कथन भी उचित नहीं है कि- 'साध्य और साधनमें विशेष रूपसे व्याप्ति ग्रहण 'करनेपर तो समस्त अनुमानोंका उच्छेद हो जायेगा' क्योंकि हमने तो सीधा और सहज नियम बना दिया है कि- 'जिससे जैसा कार्य देखा जाय उससे वैसे पदार्थका अनुमान होता है' इस नियम में कोई भी दूषण नहीं है ।
३०. बिना बोये हुए अपने आप उगनेवाले तृण, जंगली वृक्ष, पहाड़ी पौधे आदि अवयववाले होनेसे कार्यं तो अवश्य हैं परन्तु उन्हें किसी बुद्धिमान् ने नहीं बनाया है, अतः कार्यत्वहेतु अनेकान्तिक भी है। संसार में दो प्रकारके कार्य होते हैं - कुछ तो बुद्धिमानोंके द्वारा बनाये जाते हैं जैसे कि घटादिक । कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें किसी बुद्धिमान्ने उत्पन्न नहीं किया है किन्तु वे अपने आप प्राकृतिक रूपसे ही उत्पन्न होते तथा विनष्ट होते रहते हैं, जैसे कि बिना जोते-बोये उगनेवाले जंगली घास-पौधे तथा पहाड़ी वृक्ष आदि । इन जंगली वृक्ष आदिको भी पक्षमें शामिल करना
१. व्याप्तौ सकलानुमानोच्छेदप्रसक्तिरित्यपा-म २ । २. " अकृष्टप्रभवैस्तरुतृणादिभिर्व्यभिचारी चायं हेतुः । " - न्यायकुमु. पू. १०४ । ३. भवाङ्कुरादीनि म २ ।
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