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________________ १७६ षड्दर्शनसमुच्चये [का. ४६. ६ २५ - ६ २५. अथ द्वितीयः, तहि हेतोरसिद्धत्वं कार्यविशेषस्याभावात्, भावे वा जीर्णकूपप्रासादादिवदक्रियाशिनोऽपि कृतबुद्धघुत्पादकत्वप्रसङ्गः। समारोपान्नेति चेत् । सोऽप्युभयत्राविशेषतः किं न स्यात् उभयत्र कर्तुरतीन्द्रियत्वाविशेषात् । अथ प्रामाणिकस्यास्त्येवात्र कृतबुद्धिः। ननु कथं तस्य तत्र कृतत्वावगमोऽनेनानुमानान्तरेण वा । आद्येऽन्योन्याश्रयः । तथाहि-सिद्धविशेषणाद्धेतोरस्यो. त्थानं, तदुत्थाने च हेतोविशेषणसिद्धिरिति । द्वितीयपक्षेऽनुमानान्तरस्यापि सविशेषणहेतोरेवो. त्थानम्, तत्राप्यनुमानान्तरात्तत्सिद्धावनवस्था। तन्न कृतबद्धथुत्पादकत्वरूपविशेषणसिद्धिः । तथा च विशेषणासिद्धत्वं हेतोः। ६२६. यदुच्यते--'खातप्रतिपूरितभूमिदर्शनेन कृतकानामात्मनि कृतबद्धयत्पादकत्वनियमाभावः' इति तदप्यसत, तेत्राकृत्रिमभूभागादिसारूप्यस्य तदनुत्पादकस्य सद्भावात्तदनुत्पादेस्योपपत्तेः। $२५. यदि किसी विशेष प्रकारके कार्यत्वसे ईश्वरको कर्ता सिद्ध करना चाहते हो; तो यह विशेष कार्यत्व असिद्ध है। क्योंकि जगत्में हम सभी कार्योंको प्रायः समान ही पाते हैं। जैसे घट-पटादि कार्य वैसे ही पृथिवी-पहाड़ आदि। यदि पृथिवी आदि कार्यों में कुछ खास विशेषता हो तब जिन लोगोंने पृथिवीको बनते हुए नहीं देखा है उन लोगोंको भी 'कृतम्-यह ईश्वरने बनाया है' यह बुद्धि होनी चाहिए। जैसे पुराने कुएँ तथा पुराने राजप्रासादोंके खण्डहर आदिको देखकर हम लोगोंको, जिन्होंने उन्हें बनते हुए नहीं देखा था 'कृत-इसके कारीगर बड़े कुशल थे, ये कितने अच्छे बनाये हैं' इस प्रकारको कृतबुद्धि होती है उसी तरह पृथिवी आदिको देखकर भी 'ईश्वरने क्या अच्छी पृथिवी बनायी' यह कृत बुद्धि होनी चाहिए । इस 'ईश्वरकृत' बुद्धिके द्वारा ही हम ईश्वरके कर्ता होनेका अनुमान कर सकते हैं। पर दुःख तो यह है कि पृथिवी आदिमें 'ये ईश्वर कृत हैं' यह बुद्धि ही नहीं होती। ईश्वरवादी-बात यह है कि आप लोगोंने पृथिवी आदि को बनते हुए तो देखा नहीं है अतः यह सम्भावना उचित ही है कि आपको पृथिवी आदिमें कृतबुद्धि उत्पन्न नहीं । इसके सिवाय कुछ मिथ्यावासनाएँ भी पृथिवी आदिमें कृतबुद्धि नहीं होने देती।। जैन-पूराने कॅआ तथा पुराने महलोंको भी तो बनते हए हम लोगोंने नहीं देखा है फिर भी जैसे उनमें कृतबुद्धि हो जातो है वैसे पृथिवी आदिमें क्यों नहीं होती? यही तो हम पूछ रहे हैं। कर्ता तो दोनोंका इस समय अतीन्द्रिय है-अर्थात् इन्द्रियोंसे दिखने लायक नहीं है। मिथ्यावासनाका तो यह निर्णय नहीं हो सकता कि-'हम लोगोंको मिथ्यावासनाके कारण क्षित्यादिमें कृतबुद्धि नहीं होती या आप लोगोंको ही मिथ्यावासनाके कारण कृतबुद्धि हो रही है ? ईश्वरवादी-जो प्रामाणिक हैं-समझदार श्रद्धालु हैं उन्हें तो पृथिवी, जल, वनस्पति आदिको देखकर बराबर कृतबुद्धि-इन्हें ईश्वरने बनाया है होती ही है। आप लोगोंकी न जाने कैसी समझ है ? जैन-कौन प्रामाणिक है कौन अप्रामाणिक इसकी चर्चा तो छोड़ दीजिए। आप तो पहले यह बताइए कि-'पृथिवी आदि ईश्वरकृत हैं। यह किस प्रमाणसे जानेंगे?-इसी अनुमानसे या किसी दूसरे अनुमानसे ? यदि इसी कार्यत्वहेतुसे होनेवाले अनुमानके द्वारा पृथिवी आदिको ईश्वरकृत माना जाय, तो अन्योन्याश्रय दोष होता है जब कार्यत्वहेतुका कृतबुद्धयुत्पादकत्वरूप १. तदप्युक्तम्-म. २। २. "तत्र अकृत्रिमभूभागादिसंस्थानसारूप्यस्य कृतबुद्धरनुत्पादकस्य सद्भावतः तदनुत्पादस्योपपत्तेः ।"सिद्धयतु वा, तथाप्यसौ विरुद्धः।" -न्यायकुमु. पृ. १०३। ३.-दस्योपआ., क.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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