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१७४ षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ४६. ६२३२३. किं च, कादाचित्कं वस्तु लोके कार्यत्वेन प्रसिद्धम् । जगतस्तु महेश्वरवत्सदा सत्त्वाकथं कार्यत्वम् । तदन्तर्गततरुणतुणादीनां कार्यत्वात्तस्यापि कार्यत्वे महेश्वरान्तर्गतानां बुद्ध्यादीनां परमाणवाद्यन्तर्गतानां पाकजरूपावीनां च कार्यत्वात्, महेश्वरादेरपि कार्यत्वानुषङ्गः। तथा चास्याप्यपरब्रद्धिमद्धेतकत्वकल्पनायामनवस्थापसिद्धान्तश्चानुषज्यते ।
२४. अस्तु वा यथा कथंचिज्जगतः कार्यत्वं, तथापि कार्यस्वमात्रमिह हेतुत्वेन विवक्षितं, को छोड़कर कर्तृत्वको धारण नहीं करेगा, अकर्तासे कर्ता नहीं बनेगा, अपने में अकर्तृत्वका त्याग कर कर्तृत्व रूपसे परिवर्तन नहीं करेगा तबतक वह अन्य कार्योंका उत्पादक नहीं हो सकेगा। तात्पर्य यह कि उसे जगत्कर्ता बननेके लिए अपनी अकर्तृता छोड़नी ही होगी। और जब ईश्वर ही परिवर्तनशील होनेसे कार्य हो गया तब उसका बनानेवाला दूसरा कोई अन्य होगा, दूसरेको बनानेवाला तीसरा तथा तीसरेको चौथा इस तरह अनवस्था दूषण स्पष्ट ही है। इस तरह ज्यों-ज्यों कार्यके स्वरूपका विचार करते हैं त्यों-त्यों वह सड़ी धोतीकी तरह चिथड़ा बनता जाता है। वह विचार की मारको नहीं सह सकता अतः यह कार्यत्व हेतु असिद्ध है।
२३. संसारमें कार्य तो वही कहा जाता है जो कभी उत्पन्न हुआ हो। परन्तु यह जगत् तो ईश्वरकी ही तरह अनादि ( जिसकी शुरूआत नहीं, जो कभी पैदा ही नहीं हुआ ) माना जाता है, वह ईश्वरकी ही तरह सदा रहता आया है तथा रहेगा तब इसे कार्य कैसे कह सकते हैं ? तथा ईश्वरको इसका बनानेवाला भी कैसे कहा जाय?
ईश्वरवादी-यद्यपि साधारणरूपसे परम्परा-प्रवाहकी दृष्टिसे यह समूचाका समूचा जगत् अनादि कहा जाता है और यह पूराका पूरा ब्रह्माण्ड है भी अनादि, परन्तु इस जगत्के भीतर रहनेवाले वृक्ष तिनके घट पट पहाड़ आदिका विशेष रूपसे विचार करने पर तो ये सब सादि तथा कार्य रूप ही हैं । आप जगत्का विशेष स्वरूप देखिए एक उत्पन्न होता है तो एक मरता है। एक अंकुर निकल रहा है तो दूसरा कुम्हला रहा है, आज जो जवान है वह धीरे-धीरे बूढ़ा होता जा रहा है। इस तरह विशेष दृष्टिसे यह प्रवाही जगत् कार्य भी कहा जाता है। आखिर इन सब अनगिनती कार्योंके एक समुदायको छोड़कर जगत् और है ही क्या ? इसलिए जगत् कार्य भी है और ईश्वर उसका सिरजनहार है।
जैन-'समूचा जगत् यद्यपि प्रवाहकी अपेक्षा अनादि है फिर भी तदन्तर्गत वस्तुएं नित्य नये-नये रूप धारण करती हैं अतः उनकी दृष्टिसे वह सादि है तथा कार्य है, इस युक्तिसे तो स्वयं महेश्वर तथा परमाणु आदि नित्य पदार्थ भी कार्य रूप ही सिद्ध होते हैं। हम कह सकते हैं कि 'यद्यपि महेश्वर उत्पन्न नहीं होता अनादि है परन्तु उसमें रहनेवाले बुद्धि, इच्छा, प्रयत्न आदि गुण तो सदा उत्पन्न होते रहते हैं तथा विनष्ट होते रहते हैं। इसी तरह यद्यपि परमाणु उत्पन्न नहीं होता वह अनादि है फिर भी अग्निके संयोगसे इसके श्यामरूपका लाल रूपमें परिवर्तन होता ही है । अतः महेश्वर भी जब कार्य हो गया तब उसको बनानेके लिए किसी दूसरे ईश्वरको तथा दूसरेको बनानेके लिए तीसरे ईश्वरकी अपेक्षा करनेसे अनवस्था दूषण होता है । तथा आपके शास्त्रोंमें परमाणु तथा महेश्वरको नित्यद्रव्य माना है, पर जब ये आपकी ही युक्तिसे कार्य सिद्ध हो जाते हैं तब सिद्धान्त विरुद्ध कथन होनेसे अपसिद्धान्त-सिद्धान्त विरोध-जामका दोष भी होता है।
६२४. अथवा, जिस किसी भी तरह जगत्को कार्य मान भी लिया जाय, पर आप साधारण
१.-तुककल्प-म.१,प. १,२, क. -तुकल्प-म.२ २. "अस्तु वा यथाकथंचिज्जगतः कार्यत्वम; तथापि कि कार्यमात्रमत्र हेतृत्वेन विवक्षितम, तद्विशेषो वा।" -न्यायकुमु. पृ. १०२। ३. मात्रमत्र हेतु- म.., प. । -मात्रहेतु-भ. २, प. २।
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