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-का० ४६. ६२२] जैनमतम् ।
१७३ २१. कृतमितिप्रत्ययविषयत्वमपि न कार्यत्वं, खननोत्सेचनादिना कृतमाकाशमित्यकार्येऽप्याकाशे वर्तमानत्वेनानैकान्तिकत्वात ३।।
२२. विकारित्वस्यापि कार्यत्वे महेश्वरस्यापि कार्यत्वानुषङ्गः, सतो वस्तुनोऽन्यथाभावो हि विकारित्वम् । तच्चेश्वरस्याप्यस्तीत्यस्यापरबुद्धिमद्धेतुकत्वप्रसङ्गावनवस्था स्यात्, अविकारित्वे चास्य कार्यकारित्वमतिदुर्घटमिति ४ । कार्यस्वरूपस्य विचार्यमाणस्यानुपपद्यमानत्वावसिद्धः कार्यत्वादित्ययं हेतुः।
२१. "जिसमें 'कृतम्-किया गया यह बुद्धि उत्पन्न हो वह कार्य' कार्यका यह लक्षण भी अकार्य-नित्य आकाशमें रहनेके कारण अनैकान्तिक (एक अन्त पक्षपर डटकर नहीं रहनेवाला) है। क्योंकि-जमीन खोदकर कुआं बनाते हैं, जब जमीन खोदकर मिट्टी तथा कीचड़ आदि उलीच देते हैं तब गड्ढेके साथ-ही-साथ आकाश भी निकलता चला आता है। उस गढ़ेमें निकले हुए आकाशमें 'कृतम्-किया गया' यह बुद्धि तो होती है परन्तु वह कार्य नहीं है वह तो आपके सिद्धान्तके ही अनुसार नित्य है। अतः इस अनैकान्तिक लक्षणसे आपका पक्ष सिद्ध नहीं हो सकता।
-६२२. कार्यका 'जो विकारी हो, जिसमें परिवर्तन हेर-फेर होता रहता हो वह कार्य' यह लक्षण भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि आपके ईश्वरके जिम्मे सृष्टि, रक्षा तथा संहार ये तीनों ही कार्य हैं, कर्ता-धर्ता-हर्ता सभी वही है। उसीने घट-पट तारे चांद सूरज नदी पहाड़ सभी विचित्र कार्योंके उत्पन्न करनेका ठेका ले रखा है। अब विचार कीजिए कि जबतक ईश्वर सृष्टि और रक्षामें लगा रहता है तबतक वह प्रलय तो नहीं करता है। जब वह प्रलय करने के लिए महाकालरूप धारण करता है तब उसके स्वभावमें कुछ परिवर्तन होता है या नहीं ? बिना भौंह चढ़ाये अपने रचनात्मक स्वभावको बदलकर संहारक स्वभाव धारण किये बिना प्रलय कैसे हो सकता है ? घड़ेको बनाने के समय उसका जो स्वभाव है चांदको बनाते समय भी उसका यदि वही स्वभाव रहता है उसमें कुछ भी रद्दोबदल नहीं होता तब चांद भी घड़े जैसा ही पानी भरनेके लायक ही बनेगा उसमें वह शीतलता, वह ठण्डो चमक, वह आह्लादकता नहीं आ पायेगी। काला पत्थर बनाते समय उसका जो स्वभाव है वही स्वभाव बिना किसी हेर-फेरके यदि सूरज बनाते समय भी रहता हो, तब सूरज क्या, वह तारकोलकी तरह काले पत्थरका एक ठीकरा तैयार हो जायेगा। उसमें रोशनी, गरमी तथा खरी चमचमाहट न आ पायेगी। इस तरह अनेक विचित्र कार्योंके एक मात्र रचयिता ईश्वरके स्वभावमें परिवर्तन-रद्दोबदल तो स्वीकार करना ही होगा। अतः आपके इस लक्षणके अनुसार परिवर्तनशील होनेसे तो ईश्वर स्वयं कार्य हो गया, अब इनको भी किसी दूसरे बुद्धिमान्से उत्पन्न होने दीजिए; वे भी इसी तरह कार्य होंगे उन्हें भी कोई तीसरा बनायेगा इस प्रकार अनेक ईश्वरोंको कार्य रूप होते जानेके कारण अनवस्था ( अप्रमाणीक अनन्त पदार्थों की कल्पना ) दूषण होता है । विकारका तात्पर्य ही यह है कि-मौजूद वस्तुके स्वभावमें कुछ अन्यथाभाव अर्थात् हेर-फेर हो जाना । स्वभावका हेर-फेर तो ईश्वरमें मानना ही पड़ेगा अन्यथा यह विचित्र जगत् अपने निश्चित रूपमें उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा। यदि ईश्वरमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होता, वह सदा एकरस रहता है तब उसे सदा एक जैसे ही कार्य करना चाहिए, या तो वह सृष्टि हो सृष्टि करे या प्रलय ही प्रलय । जब कोई अमुक कार्य उत्पन्न नहीं होता तब ईश्वरमें अकर्तृत्व तो मानना ही पड़ेगा और जब वह उत्पन्न होने लगता है तब कर्तृत्व भी मानना ही होता है । बिना यह माने व्यवस्था बिगड़ती है। अतः ईश्वर जबतक अपने अकर्तृत्व स्वभाव
१. "तत्रापि खननोत्से चनात् कृतमिति गृहीतसंकेतस्य कृतबुद्धिसंभवात् ।" -प्रमेरस्नमा. सू. २।१२ । २. -त्वमिति दुर्घ-म, २ ।
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