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________________ १७२ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ४६.६ १९कान्तिकः, तस्य प्रदेशवत्त्वेऽप्यकार्यत्वात् । प्रसाधयिष्यते चानतोऽस्य प्रदेशवत्त्वम् । चतुर्थकक्षायामपि तेनैवानेकान्तो न चास्य निरवयवत्वं, व्यापित्वविरोधात्परमाणुवत् १। ६ १९. नापि प्रागसतः स्वकारणसत्तासमवायः कार्यत्वं, तस्य नित्यत्वेन तल्लक्षणायोगात् । तल्लक्षणत्वे वा कार्यस्यापि क्षित्यादेस्तद्वन्नित्यत्वानुषङ्गात्, कस्य बुद्धिमद्धेतुकत्वं साध्यते। २०. किं च, योगिनामशेषकर्मक्षये पक्षान्तःपातिन्यप्रवृत्तत्वेन भागासिद्धोऽयं हेतुः, तत्प्रक्षयस्य प्रध्वंसाभावरूपत्वेन सत्तास्वकारणसमवाययोरभावात् २। स्वीकार करते हैं, अतः यह कार्य तो नहीं है; परन्तु यह घटाकाश-घटमें रहनेवाला आकाश है यह मठाकाश-मन्दिरमें रहनेवाला आकाश है, यह बनारस में रहनेवाला आकाश है' इत्यादि रूपसे आकाशमें भी प्रदेश पाये जाते हैं । जो आकाशका भाग बनारसमें है वही भाग पटनामें तो नहीं है, अतः आकाशके अनेक भाग-अवयव अनुभवसिद्ध हैं ही। इस प्रकार आकाश अवयववाला तो अवश्य है पर इसे कायं तो आप स्वयं ही नहीं मानते। अतः यह परिभाषा व्यभिचारिणी है। आकाशमें वास्तविक प्रदेशोंकी सत्ता आगे सिद्ध करेंगे। जिसमें 'यह अवयववाला है' यह बुद्धि हो वह चौथी परिभाषा भी अकार्यभूत विजातीय नित्य आकाशके साथ अनुचित सम्बन्ध रखनेके कारण व्यभिचारिणी है। आकाशमें घटाकाश मठाकाश आदि रूपसे सावयव बुद्धि अर्थात् यह अवयववाला है ऐसी बुद्धि तो होती है परन्तु वह कार्य नहीं है। आकाशको निरवयव-अवयवोंसे रहित निरंश मानना तो किसी भी तरह उचित नहीं है, क्योंकि यदि आकाशके अवयव न हों तो वह परमाणुकी तरह एक प्रदेशमें रहनेवाला होगा, समस्त जगत्में व्यापी नहीं हो सकेगा, जिसके अनन्त अवयव हों यह वही अपने भिन्न-भिन्न अवयवोंसे जगत्में व्याप्त हो सकता है। निरवयव पदार्थको तो परमाणुकी तरह जगत्के एक क्षुद्रतम-सबसे छोटे भागमें रहकर अपना गुजारा करना होगा समस्त जगत्में फैलकर नहीं। १९. 'असत् वस्तुमें सत्ताका सम्बन्ध होना तथा उसका अपने कारणोंमें समवाय सम्बन्धसे रहने लगना' कार्यका यह लक्षण भी युक्ति संगत नहीं है; क्योंकि इस लक्षणमें समवाय सम्बन्धकी बात है। समवाय सम्बन्ध एक नित्य सम्बन्ध है वह जहाँ रहता है वहां सदा रहता है । इसी तरह इसमें जिस सत्ताके सम्बन्धकी चर्चा की गयी है वह सत्ता भी नित्य है। अतः नित्य-समवाय अनित्य कार्यका लक्षण हो हो नहीं सकता। यदि नित्यसमवायको अनित्यकार्यके लक्षणमें स्थान दिया जायगा, तो समवायकी तरह पृथिवी आदि भी नित्य ही हो जायंगे। इस तरह संसारमें जब कोई कार्य ही नहीं रहेगा तब ईश्वर किसका रचनेवाला होगा? २०. दूसरी बात, योगीजन अपने ध्यानके बलसे कर्मोका नाश करते हैं, अतः कर्मोंका नाश योगियोंके ध्यानका फल होनेसे कार्य तो अवश्य है, परन्तु इसमें न तो सत्ता ही रहत और न समवाय ही इसलिए कार्यका यह लक्षण भागासिद्ध-पक्षके कुछ हिस्सोंमें नहीं रहनेवाला हो जाता है। कर्मोका नाश प्रध्वंसाभाव रूप होनेसे अभाव नामक पदार्थ है। और सत्ता द्रव्य, गुण और कर्म इन तोन पदार्थों में रहती है तथा समवाय द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इन पांच पदार्थों में ही रहनेवाला है अतः अभावमें न तो सत्ता ही रहती है और न समवाय ही । अतः ऐसा संकुचित लक्षण जो पूरे पक्ष में नहीं रहता कार्य साधक नहीं हो सकता। १.-शावयवत्वेऽपि-म. २। २. तुलना-"नापि प्रागसतः स्वकारणसत्तासंबन्धः कार्यत्वम् तत्संबन्धस्य समवायाख्यस्थ नित्यत्वेन कार्यलक्षणत्वायोगात् ।" -न्यायकुमु. पृ.१०१। ३. "तदा योगिनामशेषकर्मक्षये पक्षान्तःपातिनि हेतोः कार्यत्वलक्षणस्याप्रवृत्तर्भागासिद्धत्वम् । न च तत्र सत्तासमवायः स्वकारणसमवायो वा समस्ति, तत्प्रक्षयस्य प्रध्वंसरूपत्वेन सत्तासमवाययोरभावात् सत्ताया द्रव्यगुणक्रियाधारत्वाम्यनुज्ञानात् समवायस्य च परैर्द्रव्यादिपञ्चपदार्थवृत्तित्वाभ्युपगमात् ।"-प्रमेयरस्नमा. सू. २।१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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