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________________ -का० ४६.६१८] जैनमतम् । चाभावसाध्यत्वे पिशाचादेरपि तत्प्रसक्तिः स्यादिति । १८. अत्र प्रतिविधीयते। तत्र यत्तावत् क्षित्यादेर्बुद्धिमद्धेतुकत्वसिद्धये कार्यत्वसाधनमुक्तं, तत् कि सावयवत्वं १, प्रागसतः स्वकारणसत्तासमवायः.२, कृतमितिप्रत्ययविषयत्वं ३, विकारित्वं ४ वा स्यात् । यदि सावयवत्वं, तदेवमपि किमवयवेषु वर्तमानत्वं १, अवयवैरारभ्यमाणत्वं २, प्रदेशवत्वं ३, सावयवमितिबुद्धिविषयत्वं ४ वा। तत्राद्यपक्षेऽवयवसामान्येनानैकान्तिकोऽयं हेतुः, तद्धयवयवेषु वर्तमानमपि निरवयवमकायं च प्रोच्यते। द्वितीयपक्षे तु साध्यसमो हेतुः, यथैव हि क्षित्यादेः कार्यत्वं साध्यं, एवं परमाण्वाद्यवयवारभ्यत्वमपि । तृतीयोऽध्याकाशेनानदिख ही नहीं सकती उसका भी यदि अनुपलब्धिसे अभाव मान लिया जाय, तब तो तमाम पिशाच आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका अभाव ही मानना होगा क्योंकि वे तो कभी भी हमको उपलब्ध नहीं होते। ६१८. जैन-(उत्तरपक्ष ) उक्त ईश्वर कर्तृत्व साधक दलीलोंका खण्डन इस प्रकार हैआपने पृथिवी आदिको ईश्वररचित सिद्ध करनेके लिए कार्यत्व हेतुका प्रयोग किया है। तो सबसे पहले उस कार्यकी ही ऐसी सुनिश्चित परिभाषा बताइए जिस परिभाषासे यह निश्चय किया जा सके कि संसारमें अमुक पदार्थ तो कार्य हैं तथा अमुक पदार्थ अकार्य। क्या जो अवयववाला है उसे कार्य कहा जाय ? या जिसका पहले तो अभाव था पर जो सत्ताका सम्बन्ध होनेसे तथा अपने कारणोंके साथ समवाय-विशिष्ट सम्बन्ध रखनेके कारण 'सत्' कहा जाने लगा है उसे कार्य कहें ? अथवा जिसे देखते ही 'कृतम्' किया गया है यह बुद्धि उत्पन्न हो जाय वह कार्य है ? या जिसमें विकार होता है वह विकारी पदार्थ कार्य कहा जाय? यदि सावयव-अवयववाले पदार्थको कार्य कहते हैं, तो यही बताइए कि सावयव किसे कहें ? क्या जो पदार्थ अवयवोंमें रहता है वह सावयव है, या जो अवयवोंके संयोगसे उत्पन्न हुआ है वह ? अथवा जिसके अवयव-हिस्से मौजूद हों उसे सावयव कहा जाय, या जिसमें 'यह अवयववाला है' ऐसी बुद्धि उत्पन्न हो उसे ? यदि जो अवयवोंमें रहता है वह सावयव होनेसे कार्य है, तो अवयवों में रहनेवाले अवयवत्व सामान्यसे यह लक्षण व्यभिचारी हो जायगा। क्योंकि 'यह अवयव है यह अवयव है' इस एक जैसी अनुगत बुद्धिके द्वारा जिसका परिज्ञान होता है वह अवयवत्व नामकी जाति आपके मतसे नित्य है अतएव कार्यरूप तो हो ही नहीं सकती. परन्त वह अवयवत्व जाति अवयवोंमें रहती अवश्य है। अतः विपक्षभूत अकार्य नित्यमें भी इस लक्षणके पास जानेसे यह व्यभिचारी है। अवयवत्व सामान्य अवयवोंमें रहता तो है परन्तु वह आपके मतसे निरवयव-निरंश है, उसके अवयव नहीं हैं । 'जो अवयवोंसे उत्पन्न हो वह कार्य' यह दूसरी परिभाषा तो साध्यके समान असिद्ध ही है। जिस प्रकार अभी पृथिवी आदिको कार्य सिद्ध करना है उसी तरह इनका परमाणु आदि अवयवोंसे उत्पन्न होना भी तो अभी सिद्ध ही करना है। अभी इसकी सिद्धि नहीं हुई है। तात्पर्य यह कि जिस तरह कार्यत्व अभी विवादमें पड़ा है, असिद्ध है, उसी तरह अवयवोंसे उत्पन्न होना भी अभी विवादकी ही चीज है क्योंकि चाहे कार्य कह लो या अवयवोंसे उत्पन्न होनेवाला, दोनों एक ही बात है। अतः यह परिभाषा साध्यसम अर्थात् साध्यके समान असिद्ध है। 'जो प्रदेशवाला हो हो, जिसके हिस्से हों वह काय' यह तीसरी परिभाषा अकार्य नित्य आकाशमें भी चली जाती है, अतः यह अतिव्याप्त या व्यभिचारिणी (वि-विपक्षसे भी अभिचार-सम्बन्ध रखना) है। आप आकाशको समस्त जगत्में व्याप्त रहनेवाला मानते हैं तथा उसे नित्य भी १. तुलना “यत्तावत् क्षित्यादेर्बुद्धिमद्धेतुकत्वसिद्धये कार्यत्वं साधनमुक्तम्; तत्कि सावयवत्वम्, प्रागसतः स्वकारणसत्तासमवायः, 'कृतम्' इति प्रत्ययविषयत्वम्, विकारित्वं वा स्यात् ?"-न्यायकुमु. पृ. १०१ । प्रमेयरस्नमा. पृ. ६४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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