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________________ १७० षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ४६.६१६१६. ननु क्षित्यादेर्बुद्धिमद्धेतुकत्वेऽक्रियादशिनोऽपि जीर्णकूपादिष्विव कृतबुद्धिरुत्पद्यते [ छत] न चात्र सा उत्पद्यमाना दृष्टा, अतो दृष्टान्तदृष्टस्य हेतोमण्यभावावसिद्धत्वम् । तदप्ययुक्तम्; यतः प्रामाणिकमितरं वापेक्ष्येवमुच्येत । यदीतरं तहि धूमावावप्यसिद्धत्वानुषङ्गः। प्रामाणिकस्य तु नासिद्धत्वं, कार्यत्वस्य बुद्धिमत्कर्तृपूर्वकत्वेन प्रतिपन्नाविनाभावस्य क्षित्यादौ प्रसिद्धः, पर्वतादौ धूमादिवत् । न च यावन्तः पदार्थाः कृतकाः तावन्तः कृतबुद्धिमात्मन्याविर्भावयन्तीति नियमोऽस्ति, खातप्रतिपूरितायां भुव्यक्रियाशिनः कृतबुद्धचुत्पादाभावात् । १७. किं च, बुद्धिमत्कारणभावोत्रानुपलब्धितो भवता प्रसाध्यते । एतच्चायुक्तम्, दृश्यानुपलब्धेरेवाभावसाधकत्वोपपत्तेः। न चेयमत्र संभवति जगत्कर्तुरदृश्यत्वात् । अनुपलब्धस्य ६१६. शंका-संसारमें जितने कार्य होते हैं उन सबको हमने बनते हए भले ही न देखा हो पर जब भी हम उन्हें देखते हैं तो हमको 'यह कितना सुन्दर बनाया गया है या यह ठीक नहीं बनाया गया' इस प्रकार की कृतबुद्धि उत्पन्न हो ही जाती है। किसी पुरानी बावड़ी या किसी राजप्रासादके खण्डहरको देखकर उसके रचयिताको कुशलतापर बरबस 'धन्य' निकल पड़ता है। परन्तु पृथिवी और पहाड़ या नदी या इन झिलमिलाते तारोंको देखकर तो कभी भी 'कृत-बहुत अच्छा बनाया गया' ऐसी कृतबुद्धि नहीं होती। इसलिए जीर्ण कृप आदि दृष्टान्तमें देखा गया कृतबुद्धिको उत्पन्न करनेवाला कायंत्व पृथिवी आदि धर्मी में नहीं पाया जाता, लिहाजा यह कार्यत्व हेतु असिद्ध है। पृथिवी आदि प्राकृतिक वस्तुओंको देखकर यह नहीं लगता कि इन्हें किसीने बनाया होगा। समाधान-आपने कहा है कि पृथिवी आदिमें कृतबुद्धि नहीं होती, तो बताइए कि यह कृतबुद्धि किसी प्रामाणिक-समझदारको नहीं होती, या साधारण व्यक्तिको? यदि साधारण व्यक्तिको कृतबद्धि न होनेके कारण कार्यत्व हेतु असिद्ध माना जाय तो वह मढ तो धम और भाफमें भी विवेक नहीं कर सकता अतः उसकी दृष्टिसे विचार करनेपर तो सभी हेतु असिद्ध हो जायंगे और इस तरह समस्त अनुमानोंका उच्छेद हो हो जायगा। प्रामाणिक-समझदार व्यक्तिको तो कार्यत्वका बुद्धिमत्कर्तृकत्वके साथ अविनाभाव गृहीत है ही और वह यह भी जानता ही है कि-'कार्यत्वहेतु पृथिवी आदिमें पाये ही जाते हैं जैसे कि पर्वतमें अग्नि ।' समझदारको जिसका कि ईश्वरमें विश्वास है-पृथिवी आदिको देखकर नियमसे कृतबुद्धि होती है। वह तो ईश्वरको कर्ता-धर्ताहर्ता सब कुछ समझता ही है। फिर यह भी कोई नियम नहीं है कि-"जितने कार्य हैं उनमें कृतबुद्धि होनी ही चाहिए। जिस जमीनमें गड्ढेको खोदकर फिर उसे भर दिया है, उसे चौरस कर दिया है उस कार्यरूप जमीनमें जिसने उसे भरते हुए नहीं देखा है उसको कभी भी 'कृत' बुद्धि उत्पन्न नहीं होती। १७. आप पृथिवी आदिमें कर्ताका अभाव अनुपलब्धिसे करते हो, परन्तु आपको अनुपलब्धिसे अभाव करते समय इस बातका खासतौरसे ध्यान रखना चाहिए कि-जिसको हम देख सकते हैं, जान सकते हैं ऐसे दृश्य पदार्थका ही अनुपलब्धिसे अभाव सिद्ध किया जा सकता है। जिन पिशाच परमाणु आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को हम देख नहीं सकते, जान नहीं सकते, उनका अनुपलब्धिसे अभाव नहीं कर सकते, क्योंकि वे पदार्थ मोजूद भी रहें तब हमें उनकी अनुपलब्धि रह सकती है। पिशाच परमाणु आदिकी तरह ईश्वर भी अदृश्य है, अतीन्द्रिय है, हम उसे देख नहीं सकते, अतः अनुपलब्धिसे उसका अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। यदि ईश्वर कहीं पहले दिखाई देता या दिखनेके योग्य होता और फिर पृथिवी आदिमें कर्तृत्वके रूपसे उसके दर्शन न होते तो बराबर उसका अभाव होता परन्तु ईश्वर तो दिखनेके योग्य ही नहीं है। जो चीज हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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