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________________ १६८ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ४६. ६१२नोपलभ्यते। प्रथम' हि कार्योत्पादककारणकलापज्ञानं ततः करणेच्छा, ततः प्रयत्नः, ततः फलनिष्पत्तिरित्यमीषां त्रयाणां समुदितानामेव कार्यकर्तृत्वे सर्वत्राव्यभिचारः। १२. सर्वज्ञता' चास्याखिलकार्यकर्तृत्वात्सिद्धा। प्रयोगोऽत्र-ईश्वरः सर्वज्ञोऽखिलक्षित्यादिकार्यकर्तृत्वात् । यो हि यस्य कर्ता स तदुपादानाद्यभिज्ञः, यथा घटोत्पादकः कुलालो मृत्पिण्डाद्यभिज्ञः, जगतः कर्ता चायम्, तस्मात्सर्वज्ञ इति । उपादानं हि जगतः पार्थिवाप्यतैजसवायवीयलक्षणाश्चतुर्विधाः परमाणवः, निमित्तकारणमदृष्टादि, भोक्तात्मा, भोग्यं तन्वादि। न चैतदनभिज्ञस्य क्षित्यादौ कर्तृत्वं संभवत्यस्मदादिवत् । - ६१३. ते च तदीयज्ञानादयो नित्याः, कुलालाविज्ञानादिभ्यो विलक्षणत्वात् । घड़ेकी उत्पत्ति नहीं होती। अतः यह मानना होगा कि उस समय ज्ञान, इच्छा तथा प्रयत्न इन तीनोंका या किसी एकका अभाव होनेसे ही घड़ेको उत्पत्ति नहीं हुई, तीन हाथका शरीर तो मौजूद था ही, अतः ज्ञान, इच्छा तथा प्रयत्न इन तीनोंसे ही कुम्हार या अन्य बुद्धिमान्में कर्तृता आती है। शरीर होनेसे नहीं। सर्वप्रथम कार्यको उत्पत्तिमें उपयोगी कारण सामग्रीका परिज्ञान करना होता है, फिर कार्य करनेकी इच्छा, तदनन्तर प्रयत्न होनेपर कार्यकी उत्पत्ति देखो जाती है। अतः ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न तीनों समुदित अर्थात् मिलकर ही कारण होते हैं। इनका कार्योत्पत्तिमें कभी भी व्यभिचार नहीं होता। $१२. इस प्रकार सामान्य रूपसे बुद्धिमान् कर्ताकी सिद्धि होनेपर इस विचित्र रहस्यमय जगत्के उत्पादक बुद्धिमान्को सर्वज्ञ मानना चाहिए। उसकी सर्वज्ञता समस्त जगत्को उत्पन्न करनेसे सिद्ध है । यदि ईश्वर सर्वज्ञ न हो तो वह इस समस्त जगत्को उत्पन्न ही नहीं कर सकेगा। अतः हम यह अनुमान कर सकते हैं कि-ईश्वर सर्वज्ञ है क्योंकि वह समस्त पृथिवी, पहाड़ आदि कार्योंको उत्पन्न करता है। जो जिस वस्तुका कर्ता होता है उसे उस वस्तुके समस्त उपादान तथा सहकारिकारणोंका यथावत् परिज्ञान होता है जैसे घड़ेको बनानेवाला कुम्हार घड़ेके उपादानकारण मिट्टीके पिण्ड आदिको अच्छी तरह जानता है। चूंकि ईश्वर इस समस्त चराचर जगत्को उत्पन्न करता है, अतः उसे इस जगत्के उपादानभूत परमाणुओंका तथा सहकारिकारण अदृष्ट काल आदिका परिज्ञान होना ही चाहिए और इसीलिए वह सर्वज्ञ है। पृथिवी, जल, अग्नि तथा वायुके परमाणु इस जगत्के उपादान कारण हैं । अदृष्ट कर्म आदि निमित्त कारण हैं । जगत्के प्राणी भोक्ता हैं तथा शरीर आदि भोग्य हैं। यदि ईश्वर इस उपादानादि कारण सामग्रीको नहीं जानता है, तो वह हम जैसे अल्पज्ञानियोंकी तरह पृथिवी आदि कार्यों को उत्पन्न करनेके योग्य ही नहीं हो सकता। अतः इस विचित्र विश्वके लायक सिरजनहारको सर्वज्ञ मानना ही चाहिए, अन्यथा कार्योंकी सुचारु रूपमें उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, सब कार्य अंट-संट यद्वा-तद्वा उत्पन्न होकर सृष्टिको विरूप कर देंगे। १३. यह ईश्वर कुम्हार आदिसे विलक्षण प्रकारका ही कर्ता है, इसोलिए उसके ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न आदि नित्य हैं, सदा रहते हैं। कुम्हार आदिके ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न तो अनित्य हैं पर ईश्वरके नित्य। १.-मं हि कार्यो-म. २। २. यथा च कुलालः सकलकलशादिकार्यकलापोत्पत्तिसंविधानप्रयोजनाद्यभिज्ञो भवस्तस्य कार्यचक्रस्य कर्ता तथेयतस्त्रैलोक्यस्य निरवधिप्राणिसुखदुःखसाधनस्थ सृष्टिसंहारसंविधानं सप्रयोजनं बहुशाखं जाननेव स्रष्टा भवितुमर्हति महेश्वरस्तस्मात्सर्वज्ञः।"-न्यायम. प्रमाण. प. १८४ । ३. -यचतु-म.। ४. “अथास्य बुद्धिनित्यत्वे कि प्रमाणमिति । नन्विदमेव बुद्धिमत्कारणाधिष्ठिताः परमाणवः प्रवर्तन्त इति ।" -न्यायवा. पृ. ४६४ । 'तस्य हि ज्ञानक्रियाशक्ती नित्ये इति ऐश्वर्य नित्यम् ।"-न्यायवा. ता. टी. पृ. ५९७ । “नित्यं तज्ज्ञानं कथमिति चेत् तस्मिन् क्षणमप्यज्ञातरि सति तदिच्छाप्रेर्यमाणकर्मावीननानाप्रकारव्यवहारविरामप्रसङ्गात् ।"-न्यायमं. प्रमाण. पृ. १८४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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