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-का० ४६६११]
जैनमतम् ।
१६७ $ ११. न च वाच्यं घटकादिवृष्टान्तवृष्टासर्वज्ञत्वासर्वगतत्वकर्तृत्वादिधर्मानुरोधेन सर्वज्ञादिविशेषणविशिष्टसाध्यविपर्ययसाधनाविरुद्धो हेतुर्दृष्टान्तश्च साध्यविकलो घटादौ तथाभूतबुद्धिमतोऽ. भावाद् इति । यतः साध्यसाधनयोविशेषेण व्याप्ती गृह्यमाणायां सकलानुमानोच्छेदप्रसक्तिः, किंतु सामान्येनान्वयव्यतिरेकाभ्यां हि व्याप्तिरवधार्यते। तो चानन्त्याव्यभिचाराच्च विशेषेषु गृहीतुं न शक्यौ । तेन बुद्धिमत्पूर्वकत्वमात्रेण कार्यत्वस्य व्याप्तिः प्रत्येतव्या,न शरीरित्वाविना। न खलु कर्तृत्वसामग्रयां शरीरमुपयुज्यते , तव्यतिरेकेणापि ज्ञानेच्छाप्रयत्नाश्रयत्वेन स्वशरीरकरणे कर्तृत्वोपलम्भात् । अकिंचित्करस्यापि सहचरत्वमात्रेण कारणत्वे वह्निपैङ्गल्यस्यापि धूमं प्रति कारणत्वप्रसङ्गः स्यात् । विद्यमानेऽपि हि शरीरे ज्ञानादीनां समस्तानां व्यस्तानां वाऽभावे कुलालादावपि कर्तृत्वं
११. शंका-घटको बनानेवाले बुद्धिमान् कुम्हारमें तो असर्वज्ञत्व शरीरित्व तथा असर्वगत्व आदि धर्मोंसे सम्बन्ध रखनेवाला कर्तृत्व पाया जाता है अत: क्षित्यादिका कर्ता भी असर्वज्ञ सशरीर तथा असवंगत ही सिद्ध होगा। इस प्रकार सर्वज्ञ अशरीरी और सवंगत ईश्वरसे विपरीत धर्मवाला कर्ता सिद्ध होनेके कारण हेतु विरुद्ध हो जायेगा। यदि सर्वज्ञ अशरीरी और व्यापी कर्ताको साध्य बनाओगे, तो दृष्टान्तभूत कुम्हार में ये अशरीरित्व सर्वगतत्व और सर्वज्ञत्वधर्म नहीं पाये जाते अतः दृष्टान्त साध्यशून्य हो जायेगा।
समाधान-साध्य और साधनको व्याप्ति सामान्यधर्मकी अपेक्षासे ग्रहण की जाती है। यदि विशेषरूपसे ग्रहण की जाय, तो महानसीय अग्नि ( रसोईघरकी अग्नि) के धर्म पर्वतमें सिद्ध होनेसे अनिष्ट प्रसंग होगा तथा पर्वतीय अग्निके धर्मोको महानसाग्निमें नहीं पाये जानेके कारण दृष्टान्तमें साध्यविकलता आयेगी और इस प्रकार समस्त अनुमानोंका उच्छेद हो जायेगा । अन्वय और व्यतिरेक-द्वारा व्याप्तिका ग्रहण सामान्यरूपसे ही होता है, क्योंकि विशेष तो अनन्त हैं तथा एक विशेषका धर्म दूसरे विशेष में न पाये जानेके कारण व्यभिचारी भी हैं अतः विशेषधर्मकी अपेक्षा अन्वय व्यतिरेक ग्रहण करना असम्भव ही है। इसीलिए प्रकृत अनुमानमें भी सामान्यबुद्धिमान् रूप कर्ताके साथ ही कार्यत्व हेतुकी व्याप्ति विवक्षित है असर्वज्ञ या शरीरी कर्ता विशेषके साथ व्याप्ति ग्रहण करना इष्ट नहीं है। कार्य करनेकी सामग्रीमें शरीर शामिल भी नहीं है, क्योंकि शरीर न भी हो, पर कारणसामग्रीका परिज्ञान, कार्योत्पादनकी इच्छा तथा तदनुकूल प्रयत्न होनेपर कार्योत्पत्ति हो ही जाती है । देखो, प्राणी जब मरता है और नये शरीर धारण करनेके लिए तैयार होता है उस समय वह अशरीरी अर्थात् स्थूलशरीरसे रहित होकर भी अपने नये शरीरका कर्ता हो जाता है । अकिंचित्कर शरोर सहचारी होने मात्रसे कारण नहीं हो सकता। कारण बननेके लिए तो उसे कुछ कार्य करना चाहिए। यदि सहचारी होने मात्रसे ही पदार्थोंको कारण मानना प्रारम्भ करें, तो धूमके प्रति अग्निके पीलेपन या भूरेपनको भी कारण मानना पड़ेगा। देखो कुम्हार जब सो रहा है या अन्य किसी कार्य में व्यस्त है उस समय शरीरके मौजूद रहते हुए भी
१. -ज्ञत्वासर्वकर्तृत्वादि-म. १, प. १, २। -ज्ञत्वासर्वज्ञकर्तृत्वादि-भ. २ । २. बोधाधारे अधिष्ठातरि साध्ये न साध्यविकल्पत्वं नापि विरुद्धत्वम् । न चात्र "बोधाधारकारणत्वकार्यत्क्योः सामान्यव्याप्तेाघातः शक्यसाधनः, विशेषेण तु व्याप्तिविरहादसाधनत्वे धूमस्याप्यसाधनत्वप्रसङ्ग।"
-प्रश, व्योम. पृ. ३०२। "किंच व्याप्त्यनुसारेण कल्प्यमानः प्रसिद्धयति । कुलालतुल्यः कति स्याद्विशेषविरुद्धता ॥ व्यापारवानसर्वज्ञः शरीरी क्लेशसंकूलः। घटस्य यादशः कर्ता तादगेव भुवः ॥ विशेषसाध्यतायां च साध्यशून्यं निदर्शनम् । कर्तसामान्यसिद्धौ तु विशेषावगतिः कुतः ॥"(पृ. १७५ ) “यदपि विशेषविरुद्धत्वमस्य प्रतिपादितं तदप्यसमीक्षिताभिधानमः विशेषविरुद्धस्य हेत्वाभासस्याभावात्, अभ्युपगमे वा सर्वानुमानोच्छेदप्रसङ्गात् ।" -न्यायमं.प्रमाण. पृ. १८२ । प्रशस्त. कन्द. पृ.५५ । ३. -ते यत्तद्व्य-भ. २। ४. कार्यत्वे-म. २।५. -पि कार्यकर्तत्व-भ.२।
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