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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ४६. ६ १०तदेवमेभिश्चतुभिरतिशयैः सनाथो दोषमुक्तश्च यो देवो भवति, स एव देवत्वेनाश्रयणीयः, स एव च परान् सिद्धि प्रापयति, न पुनरितरः सरागो भवेऽवतारवांश्च देव इत्यावेवितं मन्तव्यम् ।
१०. ननु मा भूत्सुगताविको देवः, जगत्लेष्टात्वीश्वरः किमिति नाङ्गो क्रियते । तत्साधकप्रमाणाभावादिति ब्रमः। अथास्त्येव तत्साधकं प्रमाणम्-क्षित्यादिकं बुद्धिमत्कत कं, कार्यत्वात, घटादिवत् । न चायमसिद्धो हेतुः क्षित्यादेः सावयवत्वेन कार्यत्वप्रसिद्धः । तथाहि-उर्वीपर्वततर्वादिक सर्वं कार्य; सावयवत्वात्, घटवत् । नापि विरुद्धः, निश्चितकत के घटादौ कार्यत्वदर्शनात् । नाप्य. नैकान्तिकः, निश्चिताकत केभ्यो व्योमादिभ्यो व्यावतमानत्वात् । नापि कालात्ययापदिष्टः, प्रत्यक्षागमाबाधितविषयत्वात्। हैं, अन्य सरागी तथा बार-बार अवतार लेनेवाले देव अपनी आत्माको ही जब कर्मबन्धसे मुक्त नहीं कर सके हैं तब वे परार्थ तो किस भरोसेपर करेंगे?
१०. ईश्वरवादी-यह तो आपने ठीक ही कहा है कि सुगत आदि यथार्थ देव नहीं हो सकते इसे हम भी मानते हैं। परन्तु आप इस समस्त चराचर जगत्के सिरजनहार (विधाता) ईश्वरको देव क्यों नहीं मानते ? अर्थात देवमें तो समस्त जगतको रचनेकी शक्ति मानी ही जानी चाहिए। यह ठीक है कि-जो एक बार मुक्त होता है वहो फिर संसारमें नहीं आ सकता । पर ईश्वर इन सादिमुक्त जीवोंसे विलक्षण है । वह अनादिमुक्त है, शिष्टानुग्रह तथा दुष्टनिग्रहके लिए उसका अवतार लेना केवल एक लीला है। केवल अवतार लेनेकी लीला दिखानेके कारण उसे सकर्मा नहीं कहना चाहिए। अतः सृष्टिकर्ता ईश्वरको देव मानना ही चाहिए?
__ जैन- ईश्वरको जगत्का रचयिता सिद्ध करनेवाला कोई भी साधक प्रमाण नहीं है अतः ईश्वरको देव कैसे माना जाय?
ईश्वरवादी-(पूर्वपक्ष ) आपने भी खूब कहा कि-'ईश्वरको कर्ता सिद्ध करनेवाला प्रमाण नहीं है । आप ध्यानसे सुनिए, हम ईश्वर साधक प्रमाणोंका वर्णन करते हैं-पृथिवो, पहाड़, वक्ष आदि सभी वस्तएँ किसी बर्बाद्धमान के द्वारा बनायी गयी हैं क्योंकि ये सब कार्य हैं, जेसे घड़ा कार्य है तो वह बुद्धिमान् कुम्हारके द्वारा रचा गया है उसी तरह संसारके समस्त कार्य किसी न किसी बुद्धिमान्के द्वारा हो पैदा किये जाते हैं। पृथिव्यादि पदार्थ सावयव होने के कारण कार्य हैं। जिनके अवयव होते हैं वे पदार्थ कार्य होते हैं । पृथिवी, पहाड़ आदि सभी पदार्थ कार्य हैं क्योंकि वे सावयव-अवयवोंवाले हैं जैसे कि घड़ा। अतः क्षित्यादि पक्षमें कार्यत्वहेतुकी वृत्ति होनेसे यह असिद्ध नहीं है । जिन पदार्थों के कर्ता निश्चित हैं ऐसे घटादि सपक्षमें कार्यत्व हेतु रहता है अतः यह विरुद्ध भी नहीं है। जिनके उत्पन्न करनेवाले कर्ता नहीं हैं ऐसे नित्य आकाशादि विपक्षमें कार्यत्व हेतु नहीं पाया जाता अतः यह अनैकान्तिक भी नहीं हैं। प्रत्यक्ष तथा आगमसे पक्षमें बाधा नहीं आती अतः कार्यत्व हेतु कालात्ययादिष्ट भी नहीं है।
१. -थो मुक्तश्च -म.., प. १, ', क., आ.। २. ष्टानीश्वरः-भ. २। ३. “महाभूतचतुष्टयमुपलब्धिमत्पूर्वक कार्यत्वात्""सावयवत्वात्"-प्रशस्त. कन्द. पृ. ५४ । प्रश, व्यो. पृ. ३०१ । वैशे. उप. पृ. ६२ । "शरीरानपेक्षोत्पत्तिकं बुद्धिमत्पूर्वकम् कारणत्वात् " द्रव्येषु सावयवत्वेन तद्गुणेषु कार्यगुणत्वेन कर्मसु कर्मत्वेनैव तदनुमानात् ।" -प्रशस्त. किरणा. पृ. ९७ । न्यायली. पृ. २० । न्यायमुक्ता. दिन, पृ. १३। "विवादाध्यासिताः तनु-तरु-महोघरादयः उपादानाभिज्ञकर्तृका उत्पत्तिमत्वात् अचेतनोपादानत्वाद्वा"यथा प्रासादादि । न चैषा मुत्पत्तिमरवमसिद्धम; सावयवत्वेन वा महत्त्वे सति क्रियावत्त्वेन वा वस्त्रादिवत्तत्सिद्धेः।" न्यायवा. ता. टी. प. ५९८ । न्यायमं. प. १९४ । "कार्याप्रयोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्य संख्याविशेषाच्च साध्यः विश्वविदव्ययः ॥१॥" -न्याषकुसु. पञ्चमस्त.। ४. वत्त्वे का-म. २।
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