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________________ -का० ४६.६९ जैनमतम् । ६९. तथा कृत्स्नानि-संपूर्णानि घात्यघातीनि कर्माणि-ज्ञानावरणादीनि, तेषां क्षयःसर्वथा प्रलयः। तं कृत्वा परमं पदं-सिद्धि संप्राप्तः। एतेन कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणा सिद्धावस्थाभिदधे । अपरे सुगतादयो मोक्षमवाप्यापि तीर्थनिकारादिसंभवे भूयो भवमवतरन्ति । यवाहुरन्ये'- "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ॥ १॥" इति । न ते परमार्थतो मोक्षगतिभाजः कर्मक्षयाभावात् । न हि तत्त्वतः कर्मक्षये पुनर्भवावतारः। यदुक्तम् "दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः ।। कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः॥१॥" [ तत्त्वार्थाधि० भा० १०७] उक्तं च श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादैरपि भवाभिगामकानां प्रबलमोहविजम्भितम "दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य निर्वाणमप्यनवधारितभीरनिष्टम् । मुक्तः स्वयं कृततनुश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥ १॥" [सिद्ध० द्वा० ] इत्यलं विस्तरेण । ६९. जिनेन्द्र सम्पूर्ण धातिया तथा अघातिया दोनों प्रकारके ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंका समूल नाश करके परम-सिद्ध पदको प्राप्त करनेवाले हैं। अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय ये कर्म जीवके निजस्वरूप ज्ञानादि गुणोंका घात करनेके कारण घातिया कहलाते हैं। वेदनीय, नाम, गोत्र तथा आयुष्य ये चार कर्म जीवके स्वरूपका साक्षात् घात नहीं करके घातिया कर्मोको सहायता करते हैं अतः ये अघातिया हैं। इस विशेषणसे सिद्धावस्थाका समस्तकर्ममलसे रहित होना सूचित किया गया है । सुगत आदि अन्य देव तो मोक्षावस्थाको प्राप्त करके भी अपने शासनका लोप या तिरस्कार देखकर उसके उद्धारार्थ फिर अवतार लेते हैं, जैसा कि वे स्वयं कहते हैं कि-"धर्मतीर्थके प्रवर्तक ज्ञानी तीर्थंकर परमपदको प्राप्त करके भी अपने तीर्थकी अवनति या तिरस्कार देखकर फिरसे संसारमें अवतार लेते हैं।" वास्तवमें विचार किया जाय तो ऐसे पुनः अवतार लेनेवाले ज्ञानियोंको मोक्षगामी हो नहीं कहना चाहिए, क्योंकि उन्होंने कर्ममलका समूल नाश नहीं किया, अन्यथा पुनर्जन्म कैसे सम्भव हो सकता है। यदि वस्तुतः कर्मोंका अत्यन्त उच्छेद हो गया होता तो इनका पुनः अवतार लेना असम्भव ही था। कहा भी है-"जिस तरह बोजके अच्छी तरह जल जाने पर उससे अंकुरका उत्पन्न होना नितान्त असम्भव है उसी तरह कर्मरूपी बीजके भस्म हो जानेपर संसार रूप अंकुरका उगना, संसारमें पुनः जन्म गरण करना अत्यन्त असम्भव है॥" श्रीसिद्धसेन दिवाकरने संसारमें पूनः अवतार लेनेवाल तीर्थंकरोंकी प्रबल मोह वृत्तिको प्रकट करते हुए लिखा है कि- "हे भगवन्, तुम्हारे शासनको नहीं समझनेवाले लोगोंमें इस प्रकारसे प्रबल मोहका राज्य फैला हुआ है-वे कहते हैं कि-जिन आत्माओंने कर्मरूपी ईंधनको जलाकर संसारका नाश कर दिया है वे भी मोक्षको छोड़कर फिरसे अवतार लेते हैं। मुक्त होकर भी निःशंक शरीर धारण करते हैं। तात्पर्य यह कि वे अपनी आत्माका सुधार अर्थात् उसे पूर्णकर्मनिर्मुक्त करने में तो असफल रहे हैं पर परोपकारके लिए संसारमें अवतार लेनेकी शूरता दिखाते हैं। यही तो उनपर मोहनीय कर्मकी प्रबल छाप है-जो अपना कल्याण तो कर ही नहीं पाये पर परार्थ-परार्थकी रट लगाये हुए हैं।" इस प्रकार इन चार अतिशयोंसे युक्त तथा अनन्तमुक्त-जिनकी मोक्ष अवस्था अनन्तकाल तक रहनेवाली है, जिनेन्द्र ही सच्चे देव हैं, उन्हें ही देव रूपसे समझना चाहिए। ये स्वयं कर्मोका नाश करके पूर्णताको पहुंचे हैं। ये ही दूसरे भव्य जीवोंको सदुपदेश द्वारा मोक्षमार्गपर लगा सकते १ -न्येऽपि ज्ञा- म. २ । उद्धृतोऽयम्-स्या. म. पृ. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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