SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ४६.६६६. तथा केवले-अन्यज्ञानानपेक्षत्वेनासहाये संपूर्णे वाज्ञानदर्शने यस्य स तथा केवलज्ञानकेवलदर्शनात्मको हि भगवान्, करतलकलितामलकफलवद्रव्यपर्यायात्मकं निखिलमनवरतं जगत्स्वरूपं जानाति पश्यति चेति । केवलज्ञानदर्शन' इति पदं साभिप्रायम्, छपस्थस्य हि प्रथम दर्शनमुत्पद्यते ततो ज्ञानं केवलिनस्त्वादी ज्ञानं ततो दर्शन मिति । तत्र सामान्यविशेषात्मके सर्वस्मिन्प्रमेये वस्तुनि सामान्यस्योपसर्जनीभावेन विशेषाणां च प्रधानभावेन यग्राहक तज्ज्ञानम्, विशेषाणामुपसर्जनीभावेन सामान्यस्य च प्राधान्येन यद्ग्राहकं तद्दर्शनम्, एतेन विशेषणेन ज्ञानातिशयः साक्षादुक्तोऽवगन्तव्यः। ७. तथा सुराः सर्वे देवाः, असुराश्च दैत्याः सुरशब्देनासुराणा संग्रहेणेऽपि पृथगुपादानं लोकरूढया ज्ञातव्यम् । लोको हि देवेभ्यो दानवांस्तद्विपक्षत्वेन पृथग्निर्दिशतीति । तेषामिन्द्राः स्वामिनस्तेषां तैर्वा संपूज्योऽभ्यर्चनीयः । तादृशैरपि पूज्यस्य मानवतिर्यकखेच॑रकिन्नरादिनिकरसेव्यत्वमानुषङ्गिकमिति । अनेन पूजातिशय उक्तः। ६८. तथा सद्भूताः-यथावस्थिता येऽर्थाः-जीवादयः पदार्थास्तेषां प्रकाशक:-उपदेशकः। अनेन वचनातिशय ऊचानः। ६६. जिनेन्द्र के केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रकट हो गये हैं अर्थात् जिनेन्द्रके केवल-अन्य ज्ञानकी अपेक्षा न रखनेवाले असहाय अतएव अपने आपमें परिपूर्ण ज्ञान और दर्शन होते हैं। भगवान्को हथेलीपर रखे हुए आंवलेकी तरह या स्फटिककी तरह समस्त द्रव्यको सर्व पर्यायोंका युगपत् सामान्यावलोकन रूप दर्शन तथा विशेषग्राही ज्ञान होता है। वे समस्त जगत्का सामान्य रूपसे आलोचन तथा विशेषरूपसे परिज्ञान करते हैं। छद्मस्थ-अल्पज्ञानियोंके जबतक केवलज्ञान नहीं होता तबतक पहले दर्शन और बादमें ज्ञान होते हैं परन्तु केवलज्ञानीके पहले ज्ञान तथा बादमें दर्शन होता है । इसी अभिप्रायसे पहले केवलज्ञान तथा बादमें दर्शन पद रखा गया है। संसारको समस्त वस्तुओंमें कुछ सामान्य तथा कुछ विशेष धर्म पाये जाते हैं । ज्ञान उस सामान्य विशेषात्मक प्रमेयके सामान्यधर्मको गौण कर विशेषांशको मुख्य रूपसे ग्रहण करता है । दर्शन विशेषांशको गौण कर सामान्यधर्मको ही प्रधान रूपसे ग्रहण करता है। इस विशेषणसे भगवान्के ज्ञानातिशयका साक्षात् वर्णन किया गया है। ७. जिनेन्द्रदेव सुरासुरेन्द्रोंसे संपूजित हैं । यद्यपि जैनमतमें जितने सुर-देव हैं तथा जितने असुर-दैत्य हैं वे सब सामान्य रूपसे 'सुर' शब्दसे ही गृहीत हो जाते हैं क्योंकि सभी सामान्यरूपसे देवगतिमें समुत्पन्न हैं। फिर भी संसारमें देव और दानव ये दो अलग-अलग ही प्रसिद्ध हैं, अतः उस लोकरूढ़िके कारण ही 'सुरासुरेन्द्र संपूजित' विशेषणमें सुर और असुर दोनोंका जुदा-जुदा निर्देश किया है। लोग तो असुरोंको सुरोंका प्रतिपक्षी-शत्रु मानते हैं। उन सुर तथा असुरोंके स्वामी इन्द्रों-द्वारा वे संपूजित हैं। जब सुरेन्द्र और असुरेन्द्र भी भगवान्को पूजते हैं तब मनुष्य, तियंच, विद्याधर तथा किन्नर आदिके द्वारा तो उनका पूजा जाना अपने आप हो सिद्ध हो जाता है । इस विशेषणसे भगवान्का पूजातिशय सूचित किया गया है। ६८. जिनेन्द्र सद्भतार्थप्रकाशक हैं। जिनेन्द्र जीवादि पदार्थोंका जैसा स्वाभाविक स्वरूप है उसका ठीक वैसा ही यथार्थ निरूपण करनेवाले हैं । उनके वचन वस्तुके स्वरूपको प्रकाशित करते हैं । इस विशेषणसे जिनेन्द्रका वचनातिशय प्रकट किया गया है । १. इति सा-म. २ । २. -णे पृथ-भ. २ । ३. लोका-म. २ । -शन्तोति-म. २ । ४-क्खचर-भ. १, २, प.१,२; क. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy