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- का० ४६.६५]
जैनमतम् । क्रोधमानौ द्वेषः, रागद्वेषाभ्यां विशेषेण पुनः पुनर्भावेन वजितो रहितो रागद्वेषविजितो वीतराग इत्यर्थः । रागद्वेषौ हि दुर्जयो दुरन्तभवसंपातहेतुतया च मुक्तिप्रतिरोधको समये प्रसिद्धौ। यदाह
"को दुक्खं पाविज्जा कस्स य सुक्खेहि विम्हओ हुज्जा।
को य न लभिज्ज मुक्खं रागद्दोसा जइ न हुज्जा ॥१॥” इति । ततस्तयोविच्छेद उक्तः।
६५. तथा 'हतमोहमहामल्ल.' मोहनीयकर्मोदयाद्धिसाधात्मकशास्त्रेभ्योऽपि - मुक्तिकाङ्क्षणादि-व्यामोहो मोहः, स एव सकलजगदुर्जयत्वेन महामल्ल इव महामल्लः हतो मोहमहामल्लो येन स तथा। एतेन विशेषणद्वयेन देवस्यापायापगमातिशयो व्यञ्जितो द्रष्टव्यः, तथा रागद्वेषमहामोहरहितोऽर्हन्नेव देव इति ज्ञापितं च । यदुक्तम्--
"रागोऽङ्गनासङ्गमतोऽनुमेयो द्वेषो द्विषदारणहेतिगम्यः । - मोहः कुवृत्तागमदोषसाध्यो नो यस्य देवः स स चैवमहन् ॥१॥” इति ।
द्वेषसे विशेष रूपसे रहित अर्थात् सर्वथा वीतराग हैं। ये राग-द्वेष ही अनन्त संसारमें पटकनेवाले हैं और इसीलिए ये मुक्तिके प्रतिबन्धक हैं। शास्त्रमें इन्हें मोक्षके किवाड़ोंमें अर्गला-बेंडाके समान कहा है। इनको जीतना बहुत कठिन है। कहा भी है-"यदि संसारमें राग और द्वेष नहीं होते तो क्यों कोई दुःखी होता, क्यों कोई थोड़ा-सा सुख मिलने पर विस्मित होकर अपने आपको भूल जाता तथा क्यों न हर एक प्राणी मोक्षको प्राप्त कर लेता? यह दुःख-सुख मिलनेपर स्वरूप विभ्रम होना तथा मोक्षकी प्राप्ति न होना इन्हीं राग-द्वेषकी कृपाका फल है।" अतः जिनेन्द्र राग-द्वेषके परित्यागी होते हैं।
५. ये महामोहमल्लको नाश करनेवाले हैं। मोहनीयकर्मके उदयसे होनेवाला आत्मविकार व्यामोह-स्वरूपविस्मृति ही मोह है। यह मोह समस्त विकारोंका जनक है, यह दोषरूपी सेनाका सेनापति है तथा सकल जगत्के द्वारा इसका जीतना अत्यन्त कठिन है अतः यह महामल्ल है । इसी मोहके कारण हिंसाका समर्थन करनेवाले. हिंसामें धर्म माननेवाले शास्त्रोंमें सशास्त्रका उनमें प्रतिपादित उपायोंसे मुक्ति प्राप्त करनेका व्यामोह-मिथ्या अभिनिवेश होता है। इस महामोहने सकल जगत्पर अपना अमिट प्रभाव जमा रखा है। इसको जीतना महा दुष्कर है। पर इस मोहरूपी महाभटको जिनेन्द्रने अपनी वीतरागतासे पछाड़ दिया है-उसका समूल उच्छेद कर दिया है।
इन दोनों विशेषणोंसे जिनेन्द्रका अपायापगम-पापरहितता-रूप अतिशय सूचित होता है। इनसे 'राग-द्वेष तथा मोह-इस दोषत्रिपुटीका नाश करनेवाले अहंन्त ही सच्चे देव हैं' यह भी सूचित होता है। कहा भी है-"स्त्रीसंगमसे रागका तथा शत्रुओंको मारनेवाले शस्त्रोंके द्वारा द्वेषका अनुमान होता है, कुचारित्र तथा कुशास्त्रोंमें प्रीति या उनका प्रतिपादन करनेसे मोहका अनुमान होता है। परन्तु जिनेन्द्रमें इन तीनों चिह्नोंमें से एक भी चिह्न नहीं दीख पड़ता अतः जिनेन्द्र ही राग-द्वेष-मोहसे रहित हैं, अर्हन हैं।"
१. कः दुःखं प्राप्नुयात् कस्य च सुखैः विस्मयो भवेत् । कश्च न लभेत् मोक्षं रागद्वेषो यदि न भवेताम् ।
२. सुक्खं क. । ३. -षन्मारणहेति-भ. २ । ४. सदैवमर्हन्-भ. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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