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-का० ४४. ६३८] सांख्यमतम् ।
१५९ अत एव जैना जिनमतस्य निदूषणतया परोक्षातो निर्भीका एवमुपदिशन्ति । सर्वथा स्वदर्शनपक्षपातं परित्यज्य माध्यस्थ्येनैव युक्तिगतैः सर्वदर्शनानि पुनः पुनर्विचारणीयानि, तेषु च यदेव दर्शनं युक्तियुक्ततयावभासते, यत्र च पूर्वापरविरोधगन्धोऽपि नेक्ष्यते, तदेव विशारदैरादरणीयं नापरमिति । तथा चोक्तम्
"पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥१॥" [ लोकतत्वनि. श्लो. ३८ ] इति श्री तपोगणनभोङ्गणदिनमणिश्रीदेवसुन्दरसूरिपादपनोपजीविनीगुणरत्नसूरिविरचितायो तर्करहस्यदीपिकाभिधानायां षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ती
सांख्यमतरहस्यप्रकाशनो नाम तृतीयोऽधिकारः ॥ गुंजाइश है, वे पूर्ण नहीं हैं। यदि सोना खरा सौटंचका है तो कसोटीपर कसे जानेसे क्यों डरते है। उसकी परीक्षा होने दो, निर्दोष में तो दोष निकल नहीं सकते ॥” इति। इसीलिए जेन लोग अपने जिनमतको निर्दोष होनेके कारण डंकेकी चोट कहते हैं कि "आओ, खूब परीक्षा करो' वे निर्भीक होकर परीक्षाके लिए सबका आह्वान करते हुए साफ-साफ कहते हैं कि-अपने मतका पक्षपात छोड़कर तटस्थ भावसे सभी दर्शनोंका बार-बार खूब विचार करो, विचार करनेपर जो दर्शन तकको. कसौटीपर सौटंचका निकले, युक्तिसंगत हो, जिसमें पूर्वापर विरोधकी गन्ध भी न हो उसीका विशारद-समझदारोंको आदर करना चाहिए अन्यका नहीं।' जैनियोंकी तो खुली घोषणा है कि-"हमारा महावीरसे कोई राग नहीं है जिससे उनके पक्षमें आंख मूंदकर गिरा जाय और न कपिलसे कोई द्वेष ही है। हमारा तो स्पष्ट विचार है कि-जिसके वचन युक्तियुक्त हों उसीका अनुसरण करो।"
इति तपोगणरूपी आकाशके प्रतापी सूर्य श्री देव सुन्दर सूरिके चरणसेवक श्री गुणरत्नसूरि द्वारा रची गयी षड्दर्शन समुच्चयको तर्करहस्यदीपिका नामक टोकामें सांख्यमत
के रहस्यको प्रकट करनेवाला तीसरा अधिकार पूर्ण हुआ।
१. श्रीमत्तपोगणगगनाङ्गणतरणिश्रो-भ.२। श्रीतपागच्छगगनाङ्गणनभोमणिश्री-म., प. १,२ श्रीतपागण-क.। २. सूरिक्रमकमलोपजीवि-भ,१,२, क., प. १,२। ३.-रत्नाचार्यवि-म, २ । ४. -कायाम्-भ. १, २, क., प. १, २। ५. तृतीयः प्रकाशः- म. १, २, क., प. १, २१
६. परवचनविकल्पान कूपमण्डककल्पान, विषमसदसि तांस्तान सीदतोऽनन्तसंख्यान । हसति यदतिमात्र - सर्वनीमद्वचस्तत, जयति जयति जैनं विश्वतत्त्वैकबीजम् -म ।
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