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षड्दर्शन
द्रव्याण्येव केवलानि सन्ति, न पुनरुत्पत्तिविपत्तिधर्माण: पर्यायाः केऽपि, आविर्भाव तिरोभावमात्रत्वात्तेषामिति ।
$ ३६. सांख्यानां तर्कग्रन्थाः षष्टितन्त्रोद्धाररूपं माठरभाष्यं सांख्यैसप्ततिनामकं तत्त्वकौमुदी, गौडपाद, आयतन्त्रं चेत्यादयः ॥४३॥
$ ३७. सांख्यमतमुपसंजिहीर्षनुत्तरत्र जैनमतमभिधित्सन्नाहएवं सांख्यमतस्यापि समासो गदितोऽधुना । जैनदर्शनसंक्षेपः कथ्यते सुविचारवान् ||४४||
६ ३८. व्याख्या - एवमुक्तविधिना सांख्यमतस्यापि न केवलं बौद्धनैयायिकयोरित्यपि - शब्दार्थः । समासः - संक्षेपोऽधुना गदितः । जैनदर्शनसंक्षेपः कथ्यते । कथंभूतः सुविचारवान् - सुष्ठु सर्वप्रमाणैरबाधितस्वरूपत्वेन शोभना विचाराः सुविचारास्ते विद्यन्ते यस्य स सुविचारवान्, न पुनरविचारितरमणीयविचारवानिति । अनेनापरदर्शनान्यविचारितरमणीयानीत्यावेदितं मन्तव्यम् । यदुक्तं परैरेव -
[ का० ४४. ६ ३६.
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परैहि दोषसंभावनयैव स्वमतविचारणा नाद्रियते । यत उक्तम्"अस्ति वक्तव्यता काचित्तेनेदं न विचार्यते ।
"पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् ।
आज्ञा सिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः || १ || ” [ मनु, १२ ११० ]
निर्दोषं काञ्चनं चेत्स्यात्परीक्षाया बिभेति किम् ||१||" इति ।
अन्य नहीं' । मात्र द्रव्यकी हो सत्ता है, वह नित्य है । उत्पन्न और विनष्ट होनेवाली कोई भी पर्यायें नहीं हैं। पर्यायें तो केवल आविर्भूत तथा तिरोहित होती हैं ।
$ ३६. सांख्योंके षष्टितन्त्रका पुनः संस्करण रूप माठरभाष्य सांख्यसप्तति, तत्त्वकौमुदी, गौड़पादभाष्य, आत्रेयतन्त्र इत्यादि ग्रन्थ हैं ॥४३॥
$ ३७. सांख्य मतका उपसंहार करके जैनमतके निरूपण करनेकी प्रतिज्ञा करते हैंइस तरह सांख्य मतका संक्षेपसे कथन किया गया । अब प्रमाणसिद्ध जैन दर्शनका संक्षेप.. कथन करते हैं ॥ ४४ ॥
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$ ३८, इस तरह. सांख्यमतका भी संक्षेपसे कथन किया गया। अब समस्त प्रमाणोंसे अबाधित होने के कारण जिसमें बहुत सुन्दर युक्तिसंगत विचार हैं उस सुविचारशाली जैनदर्शनका कथन करते हैं । अर्थात् इस जैनदर्शनके विचार अविचारित रमणीय बिना विचारे सुन्दर मालूम होनेवाले नहीं हैं । इस विशेषण से यह सूचित होता है कि अन्य दर्शनोंका जब तक विचार नहीं किया तभी तक वे सुन्दर मालूम होते हैं, तर्ककी कसोटीपर चढ़ते ही उनकी सुन्दरता उड़ जाती है । परदर्शनवालोंने स्वयं ही कहा है कि - "पुराण, मानवधर्म - मनुस्मृति आदि अंग- उपांग सहित वेद, तथा आयुर्वेदशास्त्र इन चारको आज्ञा सिद्ध जैसेके तैसे बाबा वाक्य के रूपमें ही मानना चाहिए, इनमें तर्क नहीं करना चाहिए ।" और न तर्कके द्वारा इनका खण्डन ही करना चाहिए । परमतवाले अपने मंतमें दोषोंकी स्वयं सम्भावना करते हैं, और यही कारण है कि विचारसे - तर्कसे डरते हैं, तर्कका आदर नहीं करते। कहा भी है- " जब अन्यमतवाले अपने दर्शनोंका विचार करने से डरते हैं तो मालूम होता है कि कुछ दालमें काला अवश्य है, उनमें कहने-सुनने की बहुत कुछ
१. पर्ययाः म. २ । २. माठराचार्यकृता सांख्यकारिकावृत्तिः । ३. सांख्यकारिका ईश्वरकृष्णकृता । ४. वाचस्पतिमिश्रकृता सांख्यतत्वकौमुदी । ५. गौडपादकृतं सांख्यकारिकाभाष्यम् ।
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