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________________ ॐ अथ चतुर्थोऽधिकारः $ १. अथावा जैनमते लिङ्गवेषाचारादि प्रोच्यते । जेना द्विविधाः श्वेताम्बरा दिगम्बराश्च । तत्र श्वेताम्बराणां रजोहरण मुखवस्त्रिकालोंचावि लिङ्गम्, चोलपट्टकल्पादिको वेषः, पञ्च समितयस्तिस्रश्च गुप्तयस्तेषामाचारः । "ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गसंज्ञिकाः । पञ्चाः समितीस्तिस्रो गुप्तीखियोगनिग्रहात् ॥ १॥" इति वचनात् । अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मा किश्वन्यवान् क्रोधादिविजयी दान्तेन्द्रियो निर्ग्रन्थो गुरुः, माधुकर्या वृत्त्या नैवकोटीविशुद्धस्तेषां नित्यमाहारः, संयमनिर्वाहार्थमेव वस्त्रपात्राविधारणम्, वन्द्यमाना धर्मलाभमाचक्षतें । १. सर्व प्रथम जैनमतवालोंके वेष, आचार आदिका वर्णन करते हैं। जैनदर्शनको माननेवाले दो सम्प्रदाय हैं - १ श्वेताम्बर २ दिगम्बर । श्वेताम्बर मुनिके रजोहरण, मुखपट्टी और बालोंका लंचन आदि लिंग - चिह्न हैं। उनका वेश चोलपट्टक तथा कल्प - एक चादर आदि होता है । पाँच प्रकारको समिति ( देख शोधकर सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति ) तथा तीन गुप्ति ( मन-वचनकायकी रक्षा ) का आचरण करते हैं। उनके नाम हैं- "ईर्या - चलते उठते-बैठते, भाषा बोलते, एषणा - भिक्षाचर्या में भाषा एषणा, किसी चीजको आदान-लेने में तथा निक्षेप - रखने में, उत्सर्ग-मलमूत्र आदिका उत्सर्गं करनेमें, समिति-बड़ी सावधानी है। कहा भी है- " ईर्या चार हाथ आगेकी जमीन देखकर चलना, भाषा-हित-मित प्रिय वचन कहना. एषणा - शुद्ध अन्तराय आदि टालकर भोजन लेना, आदान निक्षेप-देखभालकर किसी भी वस्तुका लेना और रखना तथा उत्सर्ग-निर्जीव भूमिपर मल-मूत्रादिका उत्सर्ग करना ये पांच समितियाँ अर्थात् सम्यक् प्रवृत्तियाँ हैं । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा काय गुप्ति ये योग विग्रहरूप तीन गुप्ति हैं । अर्थात् मन, वचन तथा कायकी प्रवृत्तियों पर संयम रखना - इनके व्यापारोंको रोक देना गुप्ति है ।" गुरु निम्रन्थ होते हैं जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय - आवश्यकता होनेपर भी किसीकी वस्तुको बिना दिये न लेना, ब्रह्मचर्य तथा आकिंचन्य'मेरा कुछ भी नहीं है' इस प्रकारसे किसी भी वस्तुमें ममत्वबुद्धि नहीं रखना, इन पांच महाव्रतोंका पालन करते हैं । क्रोध मान माया छल कपट लोभ आदि अन्तरंग शत्रुओंको जीतते हैं, इन्द्रियोंका दमन करते हैं, इन्द्रियोंको विषयोंकी ओर नहीं जाने देते । जिस तरह भौंरा फूलों को हानि पहुँचाये बिना ही उनसे रस ले लेता है उसी तरह साघु मधुकरीवृत्तिसे गृहस्थोंको कष्ट नहीं पहुँचाकर ही नित्य आहार ग्रहण करते हैं जो मन, वचन, कायको कृतकारित एवं अनुमोदनासे गुणा करनेपर फलित होनेवाली नव कोटियोंसे विशुद्ध होता है । शुद्धसंयमके पालनके अभिप्रायसे संयमको निबाहनेके लिए ही वस्त्र और पात्र ग्रहण करते हैं। जब उन्हें कोई नमस्कार करता है तब वे आशीर्वादके रूपमें 'धर्मलाभ' शब्द कहते हैं । Jain Education International १. “भाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ।" तत्वार्थसू. ९१५ । २. " सम्यग्योग निग्रहो गुप्तिः " - तवार्थसू. ९४ । ३. मनोवचनकायानां कृतकारितानुमतैः नव कोटयः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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